चाणक्य नीति चाणक्य नीति
तृतीय अध्याय श्लोक :- ७ मूर्खस्तु परिहर्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः। भिनत्ति वाक्शल्येन अदृष्टः कण्टको यथा।।७।। भावार्थ — मूर्ख का हमेशा त्याग कर देना चाहिए, क्यों कि वह दो पैरों वाले
तृतीय अध्याय श्लोक :- ७ मूर्खस्तु परिहर्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः। भिनत्ति वाक्शल्येन अदृष्टः कण्टको यथा।।७।। भावार्थ — मूर्ख का हमेशा त्याग कर देना चाहिए, क्यों कि वह दो पैरों वाले
तृतीय अध्याय श्लोक :- ६ प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः। सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेअ्पि न साधवः।।६।। भावार्थ — प्रलय काल में सागर भी अपनी मर्यादा को छोड़ देता है। वह तटों
तृतीय अध्याय श्लोक :- ५ एतदर्थ कुलीनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम्। आदिमध्याअ्वसानेषु न त्यजन्ति च ते नृपम्।।५।। भावार्थ — राजा कुलीन लोगों को साथ इसलिए रखते हैं क्योंकि सु-संस्कारों की वजह
तृतीय अध्याय श्लोक:-४ दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः। सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे।।४।। भावार्थ– दुष्ट और सांँप की तुलना की जाए तो दोनों में सांँप बेहतर है।
चाणक्य नीति तृतीय अध्याय श्लोक:-३ सुकुले योजयेत्कन्यां पुत्रं विद्यासु योजयेत्। व्यसने योजयेच्छत्रु मित्रं धर्मे नियोजयेत्।।३।। भावार्थ– कन्या या बेटी को अच्छे कुल में देना चाहिए और पुत्र को विद्या में लगाना