“हिंदू मान्यताओं का वैज्ञानिक आधार”
प्रश्नोत्तरी
प्र ० 1 – चंद्र ग्रहण की स्थिति कैसे बनती है?
उत्तर:- पूर्णिमा के दिन पृथ्वी की स्थिति सूर्य और चंद्रमा के बीच में होती है। जिससे पृथ्वी की छाया चंद्रमा की तरफ पड़ रही होती है। यदि इस दिन चंद्रमा उस छाया में होकर गुजरता हैं तो उसका कुछ भाग पृथ्वी की छाया में छिप जाता है अर्थात् चंद्रमा के उस भाग पर सूर्य की रोशनी नहीं पहुंच पाती। चंद्रमा का यह प्रकाशहीन भाग हमें काला दिखाई पड़ता है। चंद्र ग्रहण कहते है।
जब चंद्रमा पृथ्वी को छाया से गुजरता है, तो ग्रहण लगता है। चंद्रमा जब इस छाया में प्रवेश करता है, तब कि चंद्र ग्रहण शुरू होता है। जब यह छाया के मध्य में आ जाता है, तब पूर्ण ग्रहण होता है। सूर्य और पृथ्वी को छूने वाली स्पर्श रेखाओं की दिशा में जो किरण चलती है, वे इन दो पिंडों के अलग-अलग भागों से निकलती हैं।यदि चंद्रमा की कक्षा और पृथ्वी की कक्षा एक ही समतल (Plane) में होगी तो प्रत्येक पूर्णिमा को चंद्र ग्रहण होगा।
प्र. 2 ग्रहण की भाषा में ‘मोक्ष’ किसे कहते हैं?*
*उत्तर: कुछ काल बाद चंद्रमा अपनी कला पर दौड़ता हुआ पृथ्वी की छाया से बाहर पहुंच जाता है और ग्रहण शांत हो जाता है। इसे ही ‘मोक्ष’ कहते हैं।
प्र. 3 चंद्र ग्रहण वर्ष में कितनी बार संभव है?
उत्तर: चंद्र ग्रहण वर्ष में अधिक से अधिक तीन बार तथा कम से कम एक बार या नहीं भी होता
प्र. 4 सूर्य ग्रहण कब-कब होता है?
उत्तर : सूर्य ग्रहण प्रति अमावस्या को हो सकता है जब चंद्रमा की कक्षा और पृथ्वी की कक्षा एक ही समतल (Plane) में होगी तो प्रति अमावस्या को सूर्य ग्रहण संभव है।
प्र. 5 सूर्य ग्रहण वर्ष में कितनी बार संभव है?
उत्तर : अधिक से अधिक चार-पांच और कम से कम दो बार सूर्य ग्रहण होता ही है।
प्र. 6 सूर्य ग्रहण किस अमावस्या को और कैसे बनता है?
उत्तर: जिस अमावस्या के दिन चंद्रमा की स्थिति सूर्य और पृथ्वी के बीच में समतल (संदम) में होती है। सूर्य ग्रहण बनता है।
प्र. 7 पूर्ण सूर्य ग्रहण कहां होगा?
उत्तर- पृथ्वी के जो भाग चंद्रमा की प्रच्छाया में पड़ते हैं। वहां पूर्ण ग्रहण होता है। इसे सर्वग्राही सूर्य ग्रहण भी कहते हैं। सर्वग्राही सूर्य ग्रहण एक स्थान पर कुछ मिनटों का ही होता है।
प्र. 8 सर्वग्राही सूर्य ग्रहण अधिकतम कितने समय का होता है
उत्तर: सर्वग्राही सूर्य ग्रहण कभी भी साढ़े सात मिनट से अधिक समय का नहीं हो सकता।
प्र. 9 खण्ड ग्रहण अथवा आंशिक ग्रहण कैसे होता है?
उत्तर: चंद्रमा की प्रच्छाया के दोनों ओर उपच्छाया रहती है। पृथ्वी तल के जो भाग इस उपच्छाया में पड़ते हैं, उसमें आंशिक ग्रहण दिखाई पड़ता है। सूर्य कि जिस भाग में किरणें नहीं पहुंच पाती, उतना भाग कुछ धुंधला पड़ जाता है। ऐसे खण्ड ग्रहण के समय धूप की तेजी में भी कमी आती है। इसे आंशिक ग्रहण कहते हैं।
प्र. 10 सूर्य ग्रहण की स्थिति कहां दिखलाई देगी ?
उत्तर : चूंकि चंद्रमा का आकार पृथ्वी से बहुत छोटा है। यह छाया पृथ्वी के बहुत थोड़े से भाग पर ही पहुंच पाती है। जहां सूर्य की किरणें नहीं पहुंच पाएंगी, उस स्थान पर सूर्य ग्रहण दिखलाई देगा।
प्र. 11 क्या सारी पृथ्वी पर एक साथ सूर्य ग्रहण दिखलाई देगा ?
उत्तर : सारी पृथ्वी पर एक साथ सूर्य ग्रहण कभी नहीं हो सकता। जैसे-जैसे चंद्रमा अपनी कक्षा पर आगे चलता है, वैसे-वैसे उसकी छाया भी पृथ्वी तल पर आगे बढ़ती जाती है।
प्र. 12 पूर्ण सूर्य ग्रहण की अवस्था में क्या शोध करना चाहिए?
उत्तर:- पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय जन्म लेने वाले बच्चों की आयु, स्वास्थ्य एवं आगामी तीस वर्षो के जीवन का घटनाक्रम नोट करना चाहिए। फलित ज्योतिष के संदर्भ में यह ग्रहण किस लग्न के किस भाव को प्रभावित कर रहा है। इस पर पूर्ण अनुसंधान करना चाहिए।
प्र. 13 सूर्य और चंद्र ग्रहणों के लिए राहु और केतु किस तरह दोषी है ?
उत्तर : विष्णु पुराण के प्रथम अंश के नौवें अध्याय में इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। एक समय देवताओं और दानवों के बीच लंबे समय तक युद्ध चला। भगवान विष्णु ने दोनों पक्षों से कुछ समय के लिए युद्ध रोकने का आग्रह किया, ताकि समुद्र-मंथन किया जा सके। दोनों पक्ष इस पर राजी हो गए। समुद्र-मंथन से जो कुछ निकला, उसे देवों और असुरों में वितरित किया जाना था। मंथन के लिए रस्सी के रूप में नागराज वासुकि को मंदरागिरी में लपेटा गया । इद्र के नेतृत्व में देवतागण वासुकि की पूंछ और बलि के नेतृत्व सुरगण मुंह पकड़कर मंथन करने लगे। समुद्र-मंथन में सबसे पहले घोर विष हलाहल निकला। भगवान शिव ने स्वेच्छा से हलाहल को पी लिया, लेकिन उन्होंने इसे अपने कंठ में ही रोके रखा। विष के प्रभाव से कंठ का रंग नीला हो गया। इसी कारण उन्हें नीलकंठ भी कहा जाता है। उसके बाद समुद्र से निकलने वालों में थे- कामधेनु वारुणी, कल्पवृक्ष, अप्सराएं, चंद्रमा और लक्ष्मी। अंत में अमृत का प्याला लिए धन्वंतरि ( औषधि के जन्मदाता) का आगमन हुआ। असुर अमृत के कलश लेकर भाग गए। तब भगवान विष्णु ने देवताओं के हित में मोहिनी का रूप धारण किया। असुर उसकी सुंदरता से मोहित हो गए और उसे ही अमृत बांटने का काम सौंप दिया। मोहिनी देवताओं में अमृत बांटने लगी। राहु नामक असुर ने अपनी मायाशक्ति से इस बात को जान लिया और रूप बदलकर देवताओं के साथ बैठ गया। उसने मुंह में अमृत ले लिया, लेकिन इससे पहले कि वह इसे निगल पाता, सूर्य और चंद्रमा ने इसे पहचान लिया। दोनों ने भगवान विष्णु से यह बात बताई। उन्होंने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर धड़ से अलग कर दिया। लेकिन राहु मुंह में अमृत ले चुका था, इसलिए वह धड़-विहीन होने के बावजूद जीवित रहा। तब से उसने सूर्य और चंद्रमा को माफ नहीं किया है और अक्सर उन्हें ग्रस लेता है। इसी कारण सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण लगते हैं धड़-विहीन होने के कारण राहु अधिक समय तक सूर्य या चंद्रमा को निगल कर नहीं रख सकता, इसलिए कुछ समय बाद वे इसके चंगुल से बाहर निकल आते हैं। कालांतर में राहु का सिर-विहीन धड़ केतु के नाम से जाना जाने लगा। पुराने ऋषियों ने रोचक कहानियों के माध्यम से सूर्य-चंद्र ग्रहण को समझाया। सूर्य का आकाश में जो गोल रास्ता है वही भगवान विष्णु का चक्र है, क्योंकि समय की गणना उसी से की जाती है। उस काल चक्र को भगवान् ने चंद्रमा के इशारे पर चलाया। इसका अर्थ यह है कि यह काल चक्र जिन दो बिन्दुओं पर चंद्रमा के रास्ते से मिला, वे ही राहु और केतु हैं। जब सूर्य और चंद्रमा दोनों राहु या केतु पर हो तो सूर्य ग्रहण होता है। जब एक राहु पर और एक केतु पर हो तो चंद्र ग्रहण होता है।
ईसा की तीसरी सदी के आसपास ज्योतिष में सिद्धांत युग की शुरुआत हुई। सूर्य सिद्धांत में ग्रहण संबंधी गणना की विस्तृत विधि का उल्लेख किया गया है। इसी काल में इस बात का पता चला कि राहु और केतु चंद्र की कक्षा के क्रमशः आरोही पात और अवरोही पात है; ये पृथ्वी की कक्षा के तल का प्रतिच्छेदन करते हैं। इस प्रकार, राहु और केतु चंद्र कक्षा और क्रांतिवृत्त के दो काल्पनिक छेदन-बिंदु मात्र रह गए।
प्र. 14 क्या राहु केतु का वर्णन वेदों में मिलता है ?
उत्तर : ऋग्वेद में राहु को ‘स्वभानु’ के नाम से पुकारा गया जो सूर्य व चंद्र के प्रकाश को रोकता है। ऋग साम या यजुर्वेद के बाद अथर्ववेद ( 13.2, 16-28) में केतु का वर्णन विस्तार से मिलता है। साथ ही आधुनिक धूमकेतु का वर्णन भी, ‘अथर्ववेद’ के बहुत से मंत्रों में मिलता है।राहु केतु का वर्णन पुराणों में ज्यादा मुखरित हुआ है। परवर्ती ज्योतिषाचार्यों ने सात ग्रहों के बाद राहु को आठवां एवं केतु को नवें ग्रह के रूप में स्वीकार कर लिया। इसका उल्लेख विंशोत्तरी व अष्टोत्तरी दोनों दशा साधन में मिलता है। अष्टोत्तरी दशा में नियमित रूप से गतिशील सात खगोलीय पिंडों के साथ राहु के लिए 12 वर्ष, विंशोत्तरी दशा में 18 वर्ष का समय नियत किया गया है।