शिव पुराण
तेरहवां अध्याय – श्री रुद्र संहिता (पंचम खण्ड)
विषय:– इंद्र को जीवनदान व बृहस्पति को ‘जीव’ नाम देना
व्यासजी बोले- हे ब्राह्मण! आपने मुझ पर कृपा करके मुझे भगवान शिव के अनेक चरित्रों को बताया है। अब मैं आपसे एक और कथा जानना चाहता हूं। मैंने पूर्व में सुना था कि भगवान शिव ने जलंधर का वध किया था। कृपा कर मुझे इस कथा के बारे में भी बताएं। सूत जी बोले कि जब व्यास जी ने महामुनि से इस प्रकार पूछा तो सनत्कुमार जी बोले- हे महामुने! एक बार की बात है कि देवगुरु बृहस्पति और देवराज इंद्र भगवान शिव के दर्शन करने के लिए कैलाश पर्वत पर गए। तब भगवान शिव ने अपने भक्तों की परीक्षा लेने के विषय में सोचा। उन्होंने मार्ग में उन्हें रोक लिया। कैलाश पर्वत के रास्ते में ही वे अपना रूप बदलकर तपस्वी का वेश धारण करके बैठ गए। जैसे ही देवराज इंद्र वहां से निकले, उन्होंने तपस्वी से पूछा कि भगवान शिव अपने स्थान पर ही हैं या कहीं और गए हैं? यह पूछकर उन्होंने तपस्वी से उनके नाम आदि के विषय में भी जानना चाहा परंतु तपस्वी रूप में शिवजी चुप रहे और कुछ न है बोले।
उन तपस्वी को इस प्रकार अपने प्रश्न के उत्तर में चुप देखकर देवराज इंद्र बहुत क्रोधित हुए। वे बोले-अरे, मैं तुमसे पूछ रहा हूं और तू है कि उत्तर ही नहीं दे रहा है। जब तपस्वी ने पलटकर पुनः उत्तर नहीं दिया तब इंद्र ने हाथ में बज्र लेकर तपस्वी रूप धारण किए भगवान शिव पर आक्रमण कर दिया परंतु शिवजी ने तुरंत पलटवार करते हुए इंद्र के हाथ को पीछे धकेल दिया। तब क्रोध के कारण शिवजी का रूप प्रज्वलित हो उठा और उस तेज को देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि यह तेज सबकुछ जलाकर भस्म कर देगा। इंद्र की भुजा को झटकने से इंद्र का क्रोध भी बढ़ गया परंतु गुरु बृहस्पति उस तेज से भगवान शिव को पहचान गए।
देवगुरु बृहस्पति ने तुरंत तुरंत हाथ जोड़कर देवाधिदेव भगवान शिव को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। बृहस्पति जी ने देवराज इंद्र को भी शिव चरणों में झुका दिया और क्षमा याचना करने लगे। वे बोले कि हे प्रभु!अज्ञानतावश हम आपको पहचान नहीं पाए। भूलवश आपकी अवहेलना करने का अपराध देवराज इंद्र से हो गया है। हे भगवन्! आप तो करुणानिधान हैं। भक्तवत्सल होने के कारण आप सदा अपने भक्तों के ही वश में रहते हैं।
प्रभु! कृपा करके इंद्रदेव को क्षमा कर दीजिए। बृहस्पति जी के ऐसे वचन सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव बोले कि मैं अपने नेत्रों की ज्वाला नहीं रोक सकता। तब बृहस्पति जी बोले कि प्रभु आप इंद्र देव पर दया कीजिए और अपने क्रोध की अग्नि को कहीं और स्थापित कर देवराज का अपराध क्षमा कीजिए। तब भगवान शिव बोले- हे बृहस्पति ! मैं तुम्हारे चातुर्य से प्रसन्न हूं। आज तुमने इंद्र को जीवनदान दिलाया है इसलिए तुम्हें ‘जीव’ नाम से प्रसिद्धि मिलेगी। यह कहकर उन्होंने अपने क्रोध की ज्वाला को समुद्र में फेंक दिया। तब इंद्र देव और देवगुरु बृहस्पति ने भगवान शिव को धन्यवाद दिया और उन्हें प्रणाम करके स्वर्ग लोक चले गए।