IUNNATI SHIV PURAN शिव पुराण : पांचवा अध्याय – श्री रुद्र संहिता (पंचम खण्ड)

शिव पुराण : पांचवा अध्याय – श्री रुद्र संहिता (पंचम खण्ड)

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शिव पुराण

पांचवा अध्याय - श्री रुद्र संहिता (पंचम खण्ड) ( शिव )

विषय:--नास्तिक मत से त्रिपुर का मोहित होना

नारद जी ने पूछा- हे ब्रह्मदेव ! उन तीनों महा बलशाली दैत्यराजों के उन मायावी और पाखंडी अरिह और उनके शिष्यों द्वारा शिक्षा ग्रहण होने पर वहां क्या हुआ? उन मायावी पुरुषों ने क्या किया? कृपया मुझे बताइए।
 
नारद जी का प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी बोले- हे नारद! जब त्रिपुर के राजा ही उस मायामय शास्त्र द्वारा दीक्षित हो गए तो वहां की जनता क्यों नहीं होती? अरिहन ने कहा- मेरा ज्ञान वेदांत का सार है।
 
यह अनादिकाल से चला आ रहा है। इसमें कर्ता कर्म नहीं है। आत्मा के देह अर्थात शरीर से जितने भी बंधन हैं, वे सब ईश्वर के ही हैं।
 
ईश्वर के समान कोई भी न तो शक्तिशाली है और न ही सामर्थ्यवान। ब्रह्मा, विष्णु और महेश सब अरिहन ही कहे जाते हैं। समय आने पर ये तीनों ही लीन हो जाते हैं। आत्मा एक है।
 
मृत्यु सभी के लिए सत्य है।  मृत्यु शाश्वत है और सबके लिए निश्चित है।
 
इसलिए हमें कभी भी हिंसा नहीं करनी चाहिए और सदा ही अहिंसा के मार्ग पर चलना चाहिए। अहिंसा ही परम धर्म है। किसी को दुख पहुंचाना महापाप है। इसलिए हमें कभी भी कमजोर और निर्बलों को नहीं सताना चाहिए।
 
दूसरों को क्षमा करना ही सबसे बड़ा गुण है। इसलिए सदा अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए।
स्वर्ग की प्राप्ति की इच्छा मन में लेकर हवन की अग्नि में तिल, घी और पशु की बलि देना कहां की मानवता है।
 
इस प्रकार उन असुर राजाओं को अपना जीवन-दर्शन सुनाकर अरिह उस पुर के निवासियों से बोले कि मनुष्य को सुखपूर्वक निवास करना चाहिए।
 
आनंद ही ब्रह्म है और परम ब्रह्म की प्राप्ति सिर्फ एक व कल्पना है। तभी कहता हूं कि जब तक आपका शरीर स्वस्थ और समर्थ है, अपने सुख का मार्ग ढूंढ़कर उसका अनुसरण करो।
 
अन्यथा शीघ्र ही तुम पर बुढ़ापा आ जाएगा और तुम्हारा शरीर नष्ट हो जाएगा।
 
इसलिए ज्ञानियों को स्वयं अपने सुख की खोज करनी चाहिए। मेरी इस बात का समर्थन वेद भी करते हैं। मनुष्य को जाति-पांति के बंधनों में फंसकर कभी किसी को कम नहीं समझना चाहिए।
 
सृष्टि के आरंभ में ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। उनके दक्ष और मरीचि नामक दो पुत्र हुए।
 
नारद जी का प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी बोले- हे नारद! जब त्रिपुर के राजा ही उस मायामय शास्त्र द्वारा दीक्षित हो गए तो वहां की जनता क्यों नहीं होती? 
 
मरीचि के पुत्र कश्यप जी ने दक्ष की तेरह कन्याओं का धर्म से विवाह कराया। फिर प्रजापति के मुख, बाहु, उरु, जंघा और चरण से वर्ण उत्पन्न हुए।
 
ऐसा कहा जाता है, परंतु ये सभी बातें गलत जान पड़ती हैं, क्योंकि एक ही शरीर से जन्म लेने वाले सभी पुत्र भिन्न-भिन्न रूप वाले कैसे हो सकते हैं?
 
इसलिए वर्ण भेद को अनुचित मानना चाहिए। ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार उन अरिह नामक धर्मात्मा ने अपने भाषण द्वारा तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक तीनों असुरों के निवासियों को वेद मार्ग से विमुख कर दिया।
 
साथ ही उन्होंने पतिव्रता स्त्रियों के पतिव्रता धर्म और पुरुषों के जितेंद्रिय धर्म को अस्वीकार कर दिया।
 
इसलिए हमें कभी भी कमजोर और निर्बलों को नहीं सताना चाहिए। दूसरों को क्षमा करना ही सबसे बड़ा गुण है। इसलिए सदा अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए।
 
उन्होंने धर्म, यज्ञ, तीर्थ, श्रद्धा और धर्मशास्त्रों का भी खंडन किया। विशेषरूप से उन्होंने भगवान शिव की पूजा न करने के लिए सभी को प्रोत्साहित किया और सब देवताओं के पूजन और आराधना को व्यर्थ बताया।
 
इस प्रकार उन अरिह ने पुर के वासियों को अपने झूठे धर्म और पाखंड से मोहित कर दिया।
 
इस प्रकार वहां अधर्म फैल गया। तत्पश्चात भगवान श्रीहरि विष्णु की माया से देवी महालक्ष्मी भी उन त्रिपुरों में अपना अनादर देख उस स्थान को त्यागकर चली गईं।
 

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