IUNNATI SHIV PURAN शिव पुराण सत्रहवां अध्याय – सती को शिव से वर की प्राप्ति

शिव पुराण सत्रहवां अध्याय – सती को शिव से वर की प्राप्ति

शिव पुराण

 सत्रहवां अध्याय – श्री रूद्र संहिता (द्वितीय खंड)

विषय :- सती को शिव से वर की प्राप्ति

ब्रह्माजी कहते हैं- हे नारद! सती ने आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को उपवास • किया। नंदाव्रत के पूर्ण होने पर जब वे भगवान शिव के ध्यान में मग्न थीं तो भगवान शिव ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए। भगवान शिव का रूप अत्यंत मनोहारी था। उनके पांच मुख थे और प्रत्येक मुख में तीन नेत्र थे। मस्तक पर चंद्रमा शोभित था। उनके कण्ठ में नील चिन्ह था। उनके हाथ में त्रिशूल, ब्रह्मकपाल, वर तथा अभय था। उन्होंने पूरे शरीर पर भस्म लगा रखी थी। गंगा जी उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रही थीं। उनका मुख करोड़ों चंद्रमाओं के समान प्रकाशमान था । सती ने उन्हें प्रत्यक्ष रूप में अपने सामने पाकर उनके चरणों की वंदना की। उस समय लज्जा और शर्म के कारण उनका सिर नीचे की ओर झुका हुआ था। तपस्या का फल प्रदान करने के लिए शिवजी बोले- उत्तम व्रत का पालन करने वाली हे दक्ष नंदिनी! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिए तुम्हारी मनोकामना को पूरा करने के लिए स्वयं यहां प्रकट हुआ हूं। अतः तुम्हारे मन में जो भी इच्छा है, तुम्हारी जो भी कामना है, जिसके वशीभूत होकर तुमने इतनी घोर तपस्या की है, वह मुझे बताओ, मैं उसे अवश्य ही पूर्ण करूंगा।

 ब्रह्माजी कहते हैं – हे मुनि! जगदीश्वर महादेव जी ने सती के मनोभाव को समझ लिया था। फिर भी वे सती से बोले कि देवी वर मांगो देवी सती शर्म से सिर झुकाए थीं। वे चाहकर भी कुछ नहीं कह पा रही थीं। भगवान शिव के वचन सुनकर सती प्रेम में मग्न हो गई थीं। शिवजी बार-बार सती से वर मांगने के लिए कह रहे थे। तब देवी सती ने महादेव जी से कहा – हे वर देने वाले प्रभु! मुझे मेरी इच्छा के अनुसार ही वर दीजिए। इतना कहकर देवी चुप हो गई। जब भगवान शिव ने देखा कि देवी सती लज्जावश कुछ कह नहीं पा रही हैं तो वे स्वयं उनसे बोले – हे देवी! तुम मेरी अर्द्धांगिनी बनो। यह सुनकर सती अत्यंत प्रसन्न हुईं, क्योंकि उन्हें अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हुई थी। वे अपने हाथ जोड़कर और मस्तक को झुकाकर भक्तवत्सल शिव के चरणों की वंदना करने लगीं। सती बोलीं- हे देवाधिदेव महादेव! प्रभो! आप मेरे पिता को कहकर वैवाहिक विधि से मेरा पाणिग्रहण करें।

 ब्रह्माजी बोले- नारद! सती की बात सुनकर शिवजी ने उन्हें यह आश्वासन दिया कि ऐसा ही होगा।’ तब देवी सती ने भगवान शिव को हर्ष एवं मोह से देखा और उनसे आज्ञा लेकर अपने पिता के घर चली गईं। भगवान शिव कैलाश पर लौट गए और देवी सती का स्मरण करते हुए उन्होंने मेरा चिंतन किया। शिवजी के स्मरण करने पर मैं तुरंत कैलाश की ओर चल दिया। मुझे देखकर भगवान शिव बोले-

 ब्रह्मन् ! दक्षकन्या सती ने बड़ी भक्ति से मेरी आराधना की है। उनके नंदाव्रत के प्रभाव से और आप सब देवताओं की इच्छाओं का सम्मान करते हुए मैंने देवी सती को उनकामनोवांछित वर प्रदान कर दिया है। देवी ने मुझसे यह वर मांगा कि मैं उनका पति हो जाऊं। उनके वर के अनुसार मैंने सती को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करने का वर दे दिया है। वर प्राप्त कर वे बड़ी प्रसन्न हुई तथा उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं उनके पिता प्रजापति दक्ष के समक्ष देवी सती से विवाह करने का प्रस्ताव रखूं और पाणिग्रहण कर उनका वरण करूं। उनके विनम्र अनुरोध को मैंने स्वीकार कर लिया है। इसलिए मैंने आपको यहां बुलाया है कि आप प्रजापति दक्ष के घर जाकर उनसे देवी सती का कन्यादान मुझसे करने का अनुरोध करें।

 भगवान शिव की आज्ञा से मैं बहुत प्रसन्न हुआ और मैंने उनसे कहा- भगवन्, मैं धन्य हो गया जो आपने हम सभी देवी-देवताओं के अनुरोध को स्वीकार कर देवी सती को अपनी पत्नी बनाना स्वीकार करने और इस कार्य को पूरा करने के लिए मुझे चुना। मैं आपकी आज्ञानुसार अभी प्रजापति दक्ष के घर जाता हूं तथा उन्हें आपका संदेश सुनाकर देवी सती का हाथ आपके लिए मांगता हूं। यह कहकर मैं वेगशाली रथ से दक्ष के घर की ओर चल दिया ।नारद जी ने पूछा- हे पितामह! पहले आप मुझे यह बताइए कि देवी सती के घर लौटने पर क्या हुआ? दक्ष ने उनसे क्या कहा और क्या किया?

 ब्रह्माजी नारद जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए बोले- जब देवी सती तपस्या पूर्ण होने पर अपनी इच्छा के अनुरूप भगवान शिव से वर पाकर अपने घर लौटीं तो उन्होंने श्रद्धापूर्वक अपने माता-पिता को प्रणाम किया। उन्होंने अपनी सहेली द्वारा अपने माता-पिता को यह सूचना दी कि उन्हें भगवान शिव से वरदान की प्राप्ति हो गई है। वे सती की तपस्या से बहुत प्रसन्न हुए हैं और उन्हें अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं। यह सुनकर प्रजापति दक्ष और उनकी पत्नी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने आनंदित होकर बड़े उत्सव का आयोजन किया। उन्होंने ब्राह्मणों को भोजन कराया और उन्हें दक्षिणा दी। उन्होंने गरीबों और दीनों को दान दिया।

 कुछ समय बीतने पर प्रजापति दक्ष को पुनः चिंता होने लगी कि वे अपनी पुत्री का विवाह भगवान शिव से कैसे करें? क्योंकि वे अब तक मेरे पास सती का हाथ मांगने नहीं आए हैं। इस प्रकार प्रजापति दक्ष चिंतामग्न हो गए। लेकिन उन्हें ऐसी चिंता ज्यादा दिनों तक नहीं करनी पड़ी। शिव तो कृपा के सागर और करुणा की खान हैं, तब वह कैसे चिंतित रह सकता है, जिसकी पुत्री ने तप द्वारा शिव का वरण किया है। जब मैं सरस्वती सहित उनके घर उपस्थित हो गया, तब मुझे देखकर उन्होंने मुझे प्रणाम किया और बैठने के लिए आसन दिया। तत्पश्चात दक्ष ने मेरे आने का कारण पूछा तो मैंने

 अपने आने का प्रयोजन बताते हुए कहा-हे प्रजापति दक्ष ! मैं भगवान शिव की आज्ञा से आपके घर आया हूं। मैं देवी सती का हाथ महादेव जी के लिए मांगने आया हूं। सती ने उत्तम आराधना करके भगवान शिव को प्रसन्न कर उन्हें अपने पति के रूप में प्राप्त करने का वर प्राप्त किया है। अतः तुम शीघ्र ही सती का पाणिग्रहण शिवजी के साथ कर दो।

 नारद! मेरी यह बातें सुनकर दक्ष बहुत प्रसन्न हुआ। उसने हर्षित मन से इस विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दे दी। तब मैं प्रसन्न मन से कैलाश पर्वत पर चल दिया। वहां भगवान शिव मेरी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर प्रजापति दक्ष, उनकी पत्नी और पुत्री सती विवाह प्रस्ताव आने पर हर्ष से विभोर हो रहे थे।

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