शिव पुराण
सत्ताईसवां अध्याय – श्री रूद्र संहिता (द्वितीय खंड)
विषय:- दक्ष द्वारा महान यज्ञ का आयोजन
ब्रह्माजी बोले- हे महर्षि नारद! इस प्रकार, क्रोधित व अपमानित दक्ष ने कनखल नामक तीर्थ में एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में उन्होंने सभी देवर्षियों, महर्षियों तथा देवताओं को दीक्षा देने के लिए बुलाया। अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि, भगवान व्यास, भारद्वाज, गौतम, पैल, पराशर, गर्ग, भार्गव, ककुष, सित, सुमंतु, त्रिक, कंक और वैशंपायन सहित अनेक ऋषि-मुनि अपनी पत्नियों व पुत्रों सहित प्रजापति दक्ष के यज्ञ में सम्मिलित हुए। समस्त देवता अपने देवगणों के साथ प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ में गए। अपने पुत्र दक्ष की प्रार्थना स्वीकार करके मैं विश्वस्रष्टा ब्रह्मा और बैकुण्ठलोक से भगवान विष्णु भी उस यज्ञ में पहुंचे। वहां दक्ष ने सभी पधारे हुए अतिथियों का खूब आदर-सत्कार किया। उस यज्ञ के स्थान का निर्माण देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा किया गया था। विश्वकर्मा ने बहुत से दिव्य भवनों का निर्माण किया। उन भवनों में दक्ष ने यज्ञ में पधारे अतिथियों को ठहराया। दक्ष ने भृगु ऋषि को ऋत्विज बनाया भगवान विष्णु यज्ञ के अधिष्ठाता थे। इस विधि को मैंने ही बताया। दक्ष सुंदर रूप धारण कर यज्ञ मण्डल में उपस्थित था। उस महान यज्ञ में अट्ठासी हजार ऋषि एक साथ हवन कर सकते थे। चौंसठ हजार देवर्षि मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे। सभी मग्न होकर वेद मंत्रों का गान कर रहे थे। दक्ष ने उस महायज्ञ में गंधवों, विद्याधरों, सिद्धों, बारह आदित्यों व उनके गणों तथा नागों को भी आमंत्रित किया था। साथ ही देश-विदेश के अनेक राजा उसमें उपस्थित थे, जो अपनी सेना एवं दरबारियों सहित यज्ञ में पधारे थे। कौतुक और मंगलाचार कर दक्ष ने यज्ञ की दीक्षा ली परंतु उस दुरात्मा दक्ष ने त्रिलोकीनाथ करुणानिधान भगवान शिव को यज्ञ के लिए निमंत्रण नहीं भेजा था। न ही अपनी पुत्री सती को ही बुलाया था। दक्ष के अनुसार भगवान शिव कपालधारी हैं, इसलिए उन्हें यज्ञ में स्थान देना गलत है। सती भी शिवजी की पत्नी होने के कारण ‘कंपाली भार्या’ हुई। अतः उन्हें भी बुलाना पूर्णतः अनुचित था। दक्ष का यज्ञ महोत्सव अत्यंत धूमधाम एवं हर्ष उल्लास से आरंभ हुआ। सभी ऋषि-मुनि अपने-अपने कार्य में संलग्न हो गए। तभी वहां महर्षि दधीचि पधारे। उस यज्ञ में भगवान शंकर को न पाकर दधीचि बोले- हे श्रेष्ठ देवताओ और महर्षियो! मैं आप सभी को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता हूं। हे श्रेष्ठजनो! आप सभी यहां इस महान यज्ञ में पधारे हैं। मैं आप सबसे यह पूछना चाहता हूं कि मुझे इस यज्ञ में त्रिलोकीनाथ भगवान शंकर कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। उनके बिना यह यज्ञ मुझे सूना लग रहा है। उनकी अनुपस्थिति से यज्ञ की शोभा कम हो गई है। जैसा कि आप जानते ही हैं कि भगवान शिव की कृपा से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। वे परम सिद्ध पुरुष, नीलकंठधारी प्रभु शंकर, यहां क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं? जिनकी कृपा से अमंगल भी मंगल हो जाता है, जो सर्वथा सबका मंगल करते हैं, उन भगवान शिव का यज्ञ में उपस्थित होना बहुत आवश्यक है। इसलिए आप सभी को यज्ञ के सकुशल पूर्ण होने के लिए परम कल्याणकारी भगवान शिव को अनुनय-विनय कर इस यज्ञ में लाना चाहिए। तभी इस यज्ञ की पूर्ति हो सकती है। इसलिए आप सभी श्रेष्ठजन तुरंत कैलाश पर्वत पर जाएं और भगवान शिव और देवी सती को यज्ञ में ले आए। उनके आने से यह यज्ञ पवित्र हो जाएगा। वे परम पुण्यमयी हैं। उनके यहां आने से ही यह यज्ञ पूरा हो सकता है।
महर्षि दधीचि की बातों को सुनकर दक्ष हंसते हुए बोला कि भगवान विष्णु देवताओं के मूल हैं। अतः मैंने उन्हें सादर यहां बुलाया है। जब वे यहां उपस्थित हैं तो भला यज्ञ में क्या कमी हो सकती है। भगवान विष्णु के साथ-साथ ब्रह्माजी भी वेदों, उपनिषदों और विविध आगमों के साथ यहां पधारे है। देवगणों सहित इंद्र भी यहां उपस्थित हैं। वेद और वेदतत्वों को जानने वाले तथा उनका पालन करने वाले सभी महर्षि यज्ञ में आ चुके हैं। जब सभी देवगण एवं श्रेष्ठजन यहां उपस्थित हैं तो रुद्रदेव की यहां क्या आवश्यकता है? मैंने सिर्फ ब्रह्माजी के कहने पर अपनी पुत्री सती का विवाह शिवजी से कर दिया था। मैं जानता हूं कि वे कुलहीन हैं। उनके माता-पिता का कुछ भी पता नहीं है। वे भूतों, प्रेतों और पिशाचों के स्वामी हैं। वे स्वयं ही अपनी प्रशंसा करते हैं। वे मूढ, जड़, मौनी और ईर्ष्यालु होने के कारण यज्ञ में बुलाए जाने के योग्य नहीं हैं। अतः दधीचि जी, आप उन्हें यज्ञ में बुलाने के लिए न कहें। आप सब ऋषि-मुनि मिलकर अपने सहयोग से मेरे इस यज्ञ को सफल बनाएं।
दक्ष की बात सुनकर दधीचि मुनि बोले- हे दक्ष ! परम कल्याणकारी भगवान शिव को यज्ञ में न बुलाकर तुमने इस यज्ञ को पहले ही भंग कर दिया है। यह यज्ञ कहलाने लायक ही नहीं है। तुमने भगवान शिव को निमंत्रण न देकर उनकी अवहेलना की है। इसलिए तुम्हारा विनाश निश्चित है, यह कहकर दधीचि वहां से अपने आश्रम चले गए। उनके पीछे-पीछे भगवान शिव का अनुसरण करने वाले सभी ऋषि-मुनि भी वहां से चले गए। दक्ष के समर्थकों ने यज्ञ छोड़कर गए ऋषियों-मुनियों के प्रति व्यंग्य भरे वचनों का प्रयोग किया। इस प्रकार प्रसन्न होकर दक्ष बोलने लगे कि यह बहुत अच्छी बात है कि मंदबुद्धि और मिथ्यावाद में लगे दुराचारी मनुष्य सभी इस यज्ञ का त्याग करके स्वयं ही चले गए हैं। भगवान विष्णु और ब्रह्माजी, जो कि सभी वेदों के ज्ञाता हैं और वेद तत्वों से परिपूर्ण हैं, इस यज्ञ में उपस्थित हैं। ये ही मेरे यज्ञ को सफल बनाएंगे।
ब्रह्माजी बोले कि दक्ष की ये बातें सुनकर वे सभी शिव माया से मोहित हो गए। सभी देवर्षि आदि देवताओं का पूजन करने लगे। इस प्रकार यज्ञ पुनः आरंभ हो गया। मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार वहां यज्ञस्थल पर रुके अनेक देवर्षि और मुनि वहां पुनः यज्ञ को पूर्ण करने हेतु पूजन करने लगे।
शिव पुराण
सत्ताईसवां अध्याय – श्री रूद्र संहिता (तृतीय खंड)
पार्वती जी का क्रोध से ब्राह्मण को फटकारना
पार्वती जी बोलीं- हे ब्राह्मण देवता! मैं तो आपको परमज्ञानी महात्मा समझ रही थी परंतु आपका भेद मेरे सामने पूर्णतः खुल चुका है। आपने शिवजी के विषय में मुझे जो कुछ भी बताया है वह मुझे पहले से ही ज्ञात है पर यह सब बातें सर्वथा झूठ हैं। इनमें सत्य कुछ भी नहीं है। आपने तो कहा था कि आप शिवजी को अच्छी प्रकार से जानते हैं। । आपकी बातें सुनकर लगता है कि आप झूठ बोल रहे हैं क्योंकि ज्ञानी मनुष्य कभी भी त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के विषय में कोई भी अप्रिय बात नहीं कहते हैं। यह सही है कि लीलावश शिवजी कभी-कभी अद्भुत वेष धारण कर लेते हैं परंतु सच्चाई तो यह है कि वे साक्षात परम ब्रह्म हैं। वे ही परमात्मा हैं। उन्होंने स्वेच्छा से ऐसा वेष धारण किया है। हे ब्राह्मण! आप कौन हैं? जो ब्राह्मण का रूप धरकर मुझे छलने के लिए यहां आए हैं। आप ऐसी अनुचित व असंगत बातें करके एवं तर्क-वितर्क करके क्या साबित करना चाहते हैं? मैं भगवान शिव के स्वरूप को भली-भांति जानती हूं। वास्तव में शिवजी निर्गुण ब्रह्म हैं। समस्त गुण ही जिनका स्वरूप हों, भला उनकी जाति कैसे हो सकती है? शिवजी तो सभी विद्याओं का आधार हैं। भला, फिर उनको विद्या से क्या काम हो सकता है? पूर्वकाल में भगवान शिव ने ही श्रीहरि विष्णु को संपूर्ण वेद प्रदान किए थे। जो चराचर जगत के पिता हैं, उनके भक्तजन मृत्यु को भी जीत लेते हैं। जिनके द्वारा इस प्रकृति की उत्पत्ति हुई है, जो सभी तत्वों के आरंभ के विषय में जानते हैं, उनकी आयु का माप कैसे किया जा सकता है? भक्तवत्सल शिवजी सदा ही अपने भक्तों के वश में ही रहते हैं। वे अपने भक्तों को प्रसन्न होने पर प्रभुशक्ति, उत्साहशक्ति और मंत्रशक्ति नामक अक्षय शक्तियां प्रदान करते हैं। उनके परम चरणों का ध्यान करके ही मृत्यु को जीता जा सकता है। इसलिए शिवजी को ‘मृत्युंजय’ नाम से जाना जाता है।
भगवान शिव की कृपा प्राप्त करके ही विष्णुजी को विष्णुत्व, ब्रह्माजी को ब्रह्मत्व और अन्य देवताओं को देवत्व की प्राप्ति हुई है। भगवान शिव महाप्रभु हैं। ऐसे कल्याणमयी भगवान शिव की आराधना करने से ऐसा कौन-सा मनोरथ है जो सिद्ध नहीं हो सकता? उनकी सेवा न करने से मनुष्य सात जन्मों तक दरिद्र होता है। वहीं दूसरी ओर उनका भक्तिपूर्वक पूजन करने से सदैव के लिए लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। भगवान शिव के समक्ष आठों सिद्धियां सिर झुकाकर इसलिए नृत्य करती हैं कि भगवान उनसे सदा संतुष्ट रहें। भला ऐसे भगवान शिव के लिए कोई भी वस्तु कैसे दुर्लभ हो सकती है? भगवान शिव का स्मरण करने से ही सबका मंगल होता है। इनकी पूजा के प्रभाव से ही उपासक की सभी कामनाएं सिद्ध हो जाती हैं। ऐसे निर्विकारी भगवान शिव में भला विकार कहां से और कैसे आ सकता है? जिस मनुष्य के मुख में सदैव ‘शिव’ का मंगलकारी नाम रहता है, उसके दर्शन मात्र से ही सब पवित्र हो जाते हैं। आपने कहा था कि वे अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाते हैं। यह पूर्णतया सत्य है, परंतु उनके शरीर पर लगी हुई यह भस्म, जब जमीन पर गिरकर झड़ती है तो क्यों सभी देवता उस भस्म को अपने मस्तक पर लगाकर अपने को धन्य समझते हैं। अर्थात उनके स्पर्श मात्र से ही अपवित्र वस्तु भी पवित्र हो जाती है। भगवान शिव ही इस जगत के पालनकर्ता, सृष्टिकर्ता और संहारक हैं। भला उन्हें कैसे साधारण बुद्धि द्वारा जाना जा सकता है? उनके निर्गुण रूप को आप जैसे लोग कैसे जान सकते हैं? दुराचारी और पापी मनुष्य भगवान शिव के स्वरूप को नहीं समझ सकते। जो मनुष्य अपने अहंकार और अज्ञानता के कारण शिवतत्व की निंदा करते हैं उसके जन्म का सारा पुण्य भस्म हो जाता है। हे ब्राह्मण! आपको ज्ञानी महात्मा जानकर मैंने आपकी पूजा की है परंतु आपने शिवजी की निंदा करके अपने साथ-साथ मुझे भी पाप का भागी बना दिया है। आप घोर शिवद्रोही हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि शिवद्रोही का दर्शन हो जाने पर शुद्धिकरण हेतु स्नान करना चाहिए तथा प्रायश्चित करना चाहिए। यह कहकर देवी पार्वती का क्रोध और बढ़ गया और वे बोलीं- अरे दुष्ट! तुम तो कह रहे थे कि तुम शंकर को जानते हो, परंतु सच तो यह है कि तुम उन सनातन शिवजी को नहीं जानते हो। भगवान शिव परम ज्ञानी, सत्पुरुषों के प्रियतम व सदैव निर्विकार रहने वाले हैं। । वे मेरे अभीष्ट देव हैं। ब्रह्मा और विष्णु भी सदा महादेव जी को नमन करते हैं। सारे देवताओं द्वारा शिवजी को आराध्य माना जाता है। काल भी सदा उनके अधीन रहता है। वे भक्तवत्सल शिवशंकर ही सर्वेश्वर हैं और हम सबके परमेश्वर हैं। वे दीन-दुखियों पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखते हैं। उन्हीं महादेव जी को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु ही मैं शुद्ध हृदय से इस वन में घोर तपस्या कर रही हूं कि वे मुझे अपनी कृपादृष्टि से कृतार्थ कर मेरे मन की इच्छा पूरी करें।ऐसा कहकर देवी पार्वती चुप हो गईं और निर्विकार होकर पुनः शांत मन से शिवजी का ध्यान करने लगीं। उनकी बातों को सुन ब्राह्मण देवता ने जैसे ही कुछ बुरा कहना चाहा, पार्वती ने मुंह फेर लिया और अपनी सखी विजया से बोलीं- ‘सखी! इस अधम ब्राह्मण को रोको। यह बहुत देर से मेरे आराध्य प्रभु शिव की निंदा कर रहा है। अब पुनः उनके ही विषय में कुछ बुरा-भला कहना चाहता है। शिव निंदा करने वाले के साथ-साथ शिव निंदा सुनने वाला भी पाप का भागी बन जाता है। अतः भगवान शिव के उपासकों को शिव निंदा करने वाले का वध कर देना चाहिए। यदि शिव-निंदा करने वाला कोई ब्राह्मण हो तो उसका त्याग कर देना चाहिए तथा उस स्थान से दूर चले जाना चाहिए। यह दुष्ट ब्राह्मण है, अतः हम इसका वध नहीं कर सकते। इसलिए हमें इसका तुरंत त्याग कर देना चाहिए। हमें इसका मुंह भी नहीं देखना चाहिए। हम सब आज इसी समय इस स्थान को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर चले जाते हैं, ताकि इस अज्ञानी ब्राह्मण से पुनः हमारी भेंट न हो।इस प्रकार कहकर देवी पार्वती ने जैसे ही कहीं और चले जाने के उद्देश्य से अपना पैर आगे बढ़ाया वैसे ही भगवान शिव अपने साक्षात रूप में उनके सामने प्रकट हो गए। देवी पार्वती ने अपने ध्यान के दौरान शिव के जिस स्वरूप का स्मरण किया था। शिवजी ने उन्हें उसी रूप के साक्षात दर्शन करा दिए। साक्षात भगवान शिव शंकर को इस तरह अनायास ही अपने सामने पाकर गिरिजानंदिनी पार्वती का सिर शर्म से झुक गया।तब भगवान शिव देवी पार्वती से बोले – हे प्रिये! आप मुझे यहां अकेला छोड़कर कहां जा रही हैं? देवी! मैं आपकी इस कठोर तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुआ हूं। मैंने सभी देवताओं एवं ऋषि-मुनियों से आपकी तपस्या और दृढ़ निश्चय की प्रशंसा सुनी है। इसलिए आपकी परीक्षा लेने की ठानकर मैं आपके सामने चला आया हूं। अब आप मुझसे कुछ भी मांग सकती हैं क्योंकि मैं जान चुका हूं आप अप्रतिम सौंदर्य की प्रतिमा होने के साथ-साथ ज्ञान, बुद्धि और विवेक का अनूठा संगम हैं। आज आपने अपने उत्तम भक्ति भाव से मुझे अपना खरीदा हुआ दास बना दिया है। सुस्थिर चित्त वाली देवी गिरिजा मैं जान गया हूं कि आप ही मेरी सनातन पत्नी हैं। मैंने अनेकों प्रकार से बार-बार आपकी परीक्षा ली है। हे देवी! मेरे इस अपराध को आप क्षमा कर दें। हे शिवे! इन तीनों लोकों में आपके समान अनुरागिणी कोई न है, न थी और न ही कभी हो सकती है। मैं आपके अधीन हूं। देवी! आपने मुझे पति बनाने का उद्देश्य मन में लेकर ही यह कठिन तपस्या की है। अतः आपकी इस इच्छा को पूरा करना मेरा धर्म है। देवी मैं शीघ्र ही आपका पाणिग्रहण कर आपको अपने साथ कैलाश पर्वत पर ले जाऊंगा। देवाधिदेव महादेव जी के इन वचनों को सुनकर गिरिजानंदिनी पार्वती के आनंद की कोई सीमा नहीं रही। वे अत्यंत प्रसन्न हुईं। हर्षातिरेक से उनका तपस्या करते हुए सारा कष्ट पल में ही दूर हो गया। उनकी सारी थकावट तुरंत ही दूर हो गई। पार्वती अपनी तपस्या की सफलता और त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल महादेव जी के साक्षात दर्शन पाकर कृतार्थ हो गईं और उनके सभी दुख क्लेश पल भर में ही दूर हो गए।