शिव पुराण
पच्चीसवां अध्याय – ( विद्येश्वर संहिता)
विषय :- रुद्राक्ष माहात्म्य
सूत जी कहते हैं- महाज्ञानी शिवस्वरूप शौनक ! भगवान शंकर के प्रिय रुद्राक्ष का माहात्म्य मैं तुम्हें सुना रहा हूं। यह रुद्राक्ष परम पावन है। इसके दर्शन, स्पर्श एवं जप करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इसकी महिमा तो स्वयं सदाशिव ने संपूर्ण लोकों के कल्याण के लिए देवी पार्वती को सुनाई है। भगवान शिव बोले- हे देवी! तुम्हारे प्रेमवश भक्तों के हित की कामना से रुद्राक्ष की महिमा का वर्णन कर रहा हूं । पूर्वकाल में मैंने मन को संयम में रखकर हजारों दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या की। एक दिन अचानक मेरा मन क्षुब्ध हो उठा और मैं सोचने लगा कि मैं संपूर्ण लोकों का उपकार करने वाला स्वतंत्र परमेश्वर हूं। अतः मैंने लीलावश अपने दोनों नेत्र खोल दिए । नेत्र खुलते ही मेरे नेत्रों से जल की झड़ी लग गई, उसी से गौड़ देश से लेकर मथुरा, अयोध्या, काशी, लंका, मलयाचल पर्वत आदि स्थानों में रुद्राक्षों के पेड़ उत्पन्न हो गए। तभी से इनका माहात्म्य बढ़ गया और वेदों में भी इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इसलिए रुद्राक्ष की माला समस्त पापों का नाश कर भक्ति-मुक्ति देने वाली है। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शूद्र जातियों में जन्मे शिवभक्त सफेद, लाल, पीले या काले रुद्राक्ष धारण करें। मनुष्यों को जाति अनुसार ही रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। आंवले के फल के बराबर रुद्राक्ष को श्रेष्ठ माना जाता है। बेर के फल के बराबर को मध्यम श्रेणी का और चने के आकार के रुद्राक्ष को निम्न श्रेणी का माना जाता है।
हे देवी! बेर के समान रुद्राक्ष छोटा होने पर भी लोक में उत्तम फल देने वाला तथा सुख, सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। जो रुद्राक्ष आंवले के बराबर है, वह सभी अनिष्टों का विनाश करने वाला तथा सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला होता है। रुद्राक्ष जैसे-जैसे छोटा होता है, वैसे ही वैसे अधिक फल देने वाला होता है। पापों का नाश करने के लिए रुद्राक्ष धारण अवश्य करना चाहिए। यह संपूर्ण अभीष्ट फलों की प्राप्ति सुनिश्चित करता है। लोक में मंगलमय रुद्राक्ष जैसा फल देने वाला कुछ भी नहीं है। समान आकार वाले चिकने, गोल, मजबूत, मोटे, कांटेदार रुद्राक्ष (उभरे हुए छोटे-छोटे दानों वाले रुद्राक्ष) सब मनोरथ सिद्धि एवं भक्ति-मुक्ति दायक हैं किंतु कीड़ों द्वारा खाए गए, टूटे-फूटे, कांटों से युक्त तथा जो पूरा गोल न हो, इन पांच प्रकार के रुद्राक्षों का त्याग करें। जिस रुद्राक्ष में अपने आप डोरा पिरोने के लिए छेद हो, वही उत्तम माना गया है। जिसमें मनुष्य द्वारा छेद किया हो उसे मध्यम श्रेणी का माना जाता है। इस जगत में ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करके मनुष्य जो फल पाता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। भक्तिमान पुरुष साढ़े पांच सौ रुद्राक्ष के दानों का मुकुट बना ले और उसे सिर पर धारण करे। तीन सौ साठ दानों का हार बना ले, ऐसे तीन हार बनाकर उनका यज्ञोपवीत धा रण करे
शिव पुराण
पच्चीसवां अध्याय – श्री रूद्र संहिता (द्वितीय खंड)
विषय:-श्रीराम का सती के संदेह को दूर करना
श्रीराम बोले- हे देवी सती! प्राचीनकाल की बात है एक बार भगवान शिव ने अपने लोक में विश्वकर्मा को बुलाकर उसमें एक मनोहर गोशाला बनवाई, जो बहुत बड़ी थी। उसमें उन्होंने एक मनोहर विस्तृत भवन का भी निर्माण करवाया। उसमें एक दिव्य सिंहासन तथा एक दिव्य श्रेष्ठ छत्र भी बनवाया। यह बहुत ही अद्भुत और परम उत्तम था। तत्पश्चात उन्होंने सब ओर से इंद्र, देवगणों, सिद्धों, गंधवों, समस्त उपदेवों तथा नाग आदि को भी शीघ्र ही उस मनोहर भवन में बुलवाया। सभी वेदों और आगमों को, पुत्रों सहित ब्रह्माजी को मुनियों, अप्सराओं सहित समस्त देवियों सहित सोलह नाग कन्याओं आदि सभी को उसमें आमंत्रित किया, जो कि अनेक मांगलिक वस्तुओं के साथ वहां आई संगीतज्ञों ने वीणा-मृदंग आदि बाजे बजाकर अपूर्व संगीत का गान किया। इस प्रकार यह एक बड़ा समारोह और उत्सव था राज्याभिषेक की सारी सामग्रियां एकत्रित हुई और तीर्थों के जल से भरे घड़े मंगाए गए अनेक दिव्य सामग्रियां भी गणों द्वारा मंगवाई गई। फिर उच्च स्वरों में वेदमंत्रों का घोष कराया गया।
हे देवी! भगवान श्रीहरि विष्णु की उत्तम भक्ति से भगवान शिव सदा प्रसन्न रहते थे। उन्होंने बड़े प्रसन्न होकर श्रीहरि को बैकुंठ से बुलवाया और शुभ मुहूर्त में श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठाया। महादेव जी ने स्वयं अपने हाथों से उन्हें बहुत से आभूषण और अलंकार पहनाए। उन्होंने भगवान विष्णु के सिर पर मुकुट पहनाकर उनका अभिषेक किया। उस समय वहां अनेक मंगल गान गाए गए तब भगवान शिव ने अपना सारा ऐश्वर्य, जो कि किसी के पास भी नहीं था, उन्हें प्रेमपूर्वक प्रदान किया। इसके पश्चात भगवान शंकर ने उनकी बहुत स्तुति की और जगतकर्ता ब्रह्माजी से बोले-हे लोकेश ! आज से श्रीहरि विष्णु मेरे वंदनीय हुए। यह सुनकर सभी देवता स्तब्ध रह गए। तब वे पुनः बोले कि आप सहित सभी देवी-देवता भगवान विष्णु को प्रणाम कर उनकी स्तुति करें तथा सभी वेद मेरे साथ-साथ श्रीविष्णु जी का भी वर्णन करें।
श्री रामचंद्र जी बोले- हे देवी! भगवान शिव अपने भक्तों के ही अधीन हैं। वे अत्यंत दयालु और कृपानिधान हैं। वे सदा ही भक्तों के वश में रहते हैं। इसलिए भगवान विष्णु की शिव भक्ति से प्रसन्न होकर भक्तवत्सल शिव ने यह सबकुछ किया तथा इसके उपरांत उन्होंने विष्णुजी के वाहन गरुड़ध्वज को भी प्रणाम किया। तत्पश्चात सभी देवी-देवताओं और ऋषि- मुनियों ने भी श्रीहरि की सच्चे मन से स्तुति की। तब भगवान शिव ने विष्णुजी को बहुत से वरदान दिए तथा कहा—
श्रीहरि! आप मेरी आज्ञा के अनुसार संपूर्ण लोकों के कर्ता, पालक और संहारक हो। धर्म, अर्थ और काम के दाता तथा बुरे अथवा अन्याय करने वाले दुष्टों को दंड तथा उनका नाश करने वाले हों। आप पूरे जगत में पूजित हों तथा सभी मनुष्य सदैव आपका पूजन करें। तुम कभी भी पराजित नहीं होगे। मैं तुम्हें इच्छा की सिद्धि, लीला करने की शक्ति और सदैव स्वतंत्रता का वरदान प्रदान करता हूँ। हे हरे जो तुमसे बैर रखेंगे उनको अवश्य ही दंड मिलेगा। मैं तुम्हारे भक्तों को भी मोक्ष प्रदान करूंगा तथा उनके सभी कष्टों का भी निवारण करूंगा। तुम मेरी बायीं भुजा से और ब्रह्माजी मेरी दायीं भुजा से प्रकट हुए हो। रुद्र देव, जो साक्षात मेरा ही रूप हैं, मेरे ही हृदय से प्रकट हुए हैं। हे विष्णो! आप सदा सबकी रक्षा करेंगे। मेरे धाम में तुम्हारा स्थान उज्ज्वल एवं वैभवशाली है। वह गोलोक नाम से जाना जाएगा। तुम्हारे द्वारा धारण किए गए सभी अवतार सबके रक्षक और मेरे परम भक्त होंगे। मैं उनका दर्शन करूंगा।
श्री रामचंद्र जी कहते हैं-देवी! श्रीहरि को अपना अखंड ऐश्वर्य सौंपकर भगवान शिव स्वयं कैलाश पर्वत पर रहते हुए अपने पार्षदों के साथ क्रीड़ा करते हैं। तभी भगवान लक्ष्मीपति विष्णु गोपवेश धारण करके आए और गोप-गोपी तथा गौओं के स्वामी बनकर प्रसन्नतापूर्वक विचरने लगे तथा जगत की रक्षा करने लगे। वे अनेक प्रकार के अवतार ग्रहण करते हुए जगत का पालन करने लगे। वे ही भगवान शिव की आज्ञा से चार भाइयों के रूप में प्रकट हुए। अब इस समय मैं (विष्णु) ही अवतार रूप में प्रकट होकर चार भाइयों में सबसे बड़ा राम हूं। दूसरे भरत हैं, तीसरे लक्ष्मण हैं और चौथे भाई शत्रुघ्न हैं। मैं अपनी माता के आदेशानुसार वनवास भोगने के लिए लक्ष्मण और सीता के साथ इस वन में आया था। किसी राक्षस ने मेरी पत्नी सीता का अपहरण कर लिया है और मैं यहां-वहां भटकता हुआ अपनी पत्नी को ही ढूंढ़ रहा हूँ। सौभाग्यवश मुझे आपके दर्शन हो गए। अब निश्चय ही मुझे मेरे कार्य में सफलता मिलेगी। हे माता! आप मुझ पर कृपादृष्टि करें और मुझे यह वरदान दें कि मैं उस पापी राक्षस को मारकर अपनी पत्नी सीता को उसके चंगुल से मुक्त कर सकूं। मेरा यह महान सौभाग्य है कि मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए। मैं धन्य हो गया।
इस प्रकार देवी की अनेक प्रकार से स्तुति करके श्रीराम जी ने उन्हें अनेकों बार प्रणाम किया। श्रीराम की बातें सुनकर सती मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई और भक्तवत्सल भगवान शिव की स्तुति एवं चिंतन करने लगीं। अपनी भूल पर उन्हें लज्जा आ रही थी। वे उदास मन से शिवजी के पास चल दीं। वे रास्ते में सोच रही थीं कि मैंने अपने पति महादेव जी की बात न मानकर बहुत बुरा किया और श्रीराम जी के प्रति भी बुरे विचार अपने मन में लाई। अब मैं भगवान शिव को क्या उत्तर दूंगी? उन्हें अपनी करनी पर बहुत पश्चाताप हो रहा था। वे शिवजी के समीप गई और चुपचाप खड़ी हो गई। सती को इस प्रकार चुपचाप और दुखी देखकर भगवान शंकर ने पूछा- देवी! आपने श्रीराम की परीक्षा किस प्रकार ली? यह प्रश्न सुनकर देवी सती चुपचाप सिर झुकाकर खड़ी हो गई। उन्होंने शिवजी को कोई उत्तर नहीं दिया। वे असमंजस में थीं कि क्या उत्तर दें। लेकिन महायोगी शिव ने ध्यान से सारा विवरण जान लिया और उनका मन से त्याग कर दिया। भगवान शिव ने सोचा, अब यदि मैं सती को पहले जैसा ही स्नेह करूं तो मेरी प्रतिज्ञा भंग हो जाएगी। वेद धर्म के पालक शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हुए सती का मन से त्याग कर दिया। फिर सती से कुछ न कहकर वे कैलाश की ओर बढ़े। मार्ग में सबको, विशेषकर सती जी को सुनाने के लिए आकाशवाणीहुई कि महायोगी शिव आप धन्य हैं। आपके समान तीनों लोक में कोई भी प्रतिज्ञा-पालक नहीं है। इस आकाशवाणी को सुनते ही देवी सती शांत हो गईं। उनकी कांति फीकी पड़ गई। तब उन्होंने भगवान शिव से पूछा-
हे प्राणनाथ! आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है ? कृपया आप मुझे बताइए । परंतु भगवान शिव ने विवाह के समय भगवान विष्णु के समक्ष जो प्रतिज्ञा की थी, उसे सती को नहीं बताया। तब देवी सती ने भगवान शिव का ध्यान करके उन सभी कारणों को जान लिया, जिसके कारण भगवन् ने उनका त्याग कर दिया था। त्याग देने की बात जानकर देवी सती अत्यंत दुखी हो गईं। दुख बढ़ने के कारण उनकी आखों में आंसू आ गए और वह सिसकने लगीं। उनके मनोभावों को समझकर और देवी सती की ऐसी हालत देखकर भगवान शिव ने अपनी प्रतिज्ञा की बात उनके सामने नहीं कही। तब सती का मन बहलाने के लिए शिवजी उन्हें अनेकानेक कथाएं सुनाते हुए कैलाश की ओर चल दिए। कैलाश पर पहुंचकर, शिवजी अपने स्थान पर बैठकर समाधि लगाकर ध्यान करने लगे। सती ने दुखी मन से अपने धाम में रहना शुरू कर दिया।
भगवान शिव को समाधि में बैठे बहुत समय बीत गया। तत्पश्चात शिवजी ने अपनी समाधि तोड़ी। जब देवी सती को पता चला तो वे तुरंत शिवजी के पास दौड़ी चली आई। वहां आकर उन्होंने शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। भगवान शिव ने उन्हें अपने सम्मुख आसन दिया और उन्हें प्रेमपूर्वक बहुत सी कथाएं सुनाईं। इससे देवी सती का शोक दूर हो गया परंतु शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी। हे नारद ऋषि-मुनि आदि सभी शिव और सती की इन कथाओं को उनकी लीला का ही रूप मानते हैं क्योंकि वे तो साक्षात परमेश्वर हैं। एक-दूसरे के पूरक हैं। भला उनमें वियोग कैसे संभव हो सकता है। सती और शिव वाणी और अर्थ की भांति एक-दूसरे से मिले हुए हैं। उनमें वियोग होना असंभव है। उनकी इच्छाओं और लीलाओं से ही उनमें वियोग हो सकता है।