श्रीमद् भगवत गीता
३ अध्याय – कर्म योग
४१ श्लोक
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् || ४१ ||
भावार्थ
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ! प्रारम्भ से ही इन इन्द्रियों को नियंत्रण में रखकर कामना रूपी शत्रु का वध कर डालो जो पाप का मूर्तरूप तथा ज्ञान और आत्मबोध का विनाशक है।
तात्पर्य
तात्पर्य : इस श्लोक में अब श्रीकृष्ण यह स्पष्ट कर रहे हैं कि उस काम वासना पर कैसे विजय प्राप्त की जा सकती है जो सभी बुराइयों की जड़ है और मानव चेतना के लिए घातक है।
काम वासना को बुराइयों का भण्डार बताते हुए श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रारम्भ से ही इन्द्रियों के विषय भोगों पर नियंत्रण रखने के लिए कहते हैं।
इनकी उत्पत्ति की अनुमति देना हमारे कष्टों का मूल कारण है जबकि इनका दमन करना शांति का मार्ग है। इसे समझने के लिए आगे प्रस्तुत उदाहरण की ओर ध्यान दें।
रमेश और दिनेश दो सहपाठी कॉलेज के छात्रावास के एक कमरे में रहते थे। रात्रि 10 बजे रमेश सिगरेट पीने की इच्छा व्यक्त करता है। वह कहता है, “मेरी धूम्रपान करने की तीव्र इच्छा हो रही है।
दिनेश कहता है कि बहुत अधिक रात हो गयी है इसलिए धूम्रपान करना भूल कर सो जाओ।” रमेश कहता है-“नहीं-नहीं मैं जब तक सिगरेट के कश नहीं ले लेता, तब तक मैं सो नहीं सकता।
” दिनेश सो जाता है और रमेश सिगरेट की खोज में कमरे से बाहर निकल जाता है। छात्रावास के निकट की दुकान बंद हो चुकी थी। दो घंटे के पश्चात जब अंत में उसे सिगरेट मिलती है तब वह छात्रावास में आकर धूम्रपान करता है।
प्रात:काल दिनेश उससे पूछता है-“रमेश तुम रात को कब सोये?” रमेश–’आधी रात के समय’ दिनेश-“क्या, वास्तव में, इसका अभिप्राय है कि तुम दो घंटे तक धूम्रपान करने के लिए तड़पते रहे और धूम्रपान करने के पश्चात तुम उसी
मनोदशा में लौट आये जो कल 10 बजे रात्रि काल में थी।
” रमेश ने पूछा-“इससे तुम्हारा क्या अभिप्राय है?” दिनेश ने उत्तर दिया-“देखो रात्रि 10 बजे तुम्हारी धूम्रपान करने की कोई इच्छा नहीं थी और तुम शांत थे किन्तु रात्रिकाल में 10 बजे से 12 बजे अर्धरात्रि तक तुम सिगरेट पीने के लिए तड़पते रहे।
अंततः जब तुम्हारा धूम्रपान करने की इच्छा का रोग समाप्त हुआ तभी तुम सो सके। दूसरी ओर मैंने अपने मन में किसी प्रकार की इच्छा उत्पन्न नहीं की और मैं 10 बजे रात्रि को शांतिपूर्वक सो गया।
” इस प्रकार से हम शारीरिक इन्द्रियों के विषय भोगों की कामनाएँ उत्पन्न करते हैं और बाद में वे हमें उत्तेजित करती हैं। जब हमें मनचाही वस्तु मिल जाती है तब हमारे द्वारा जनित रोग निर्मूल हो जाता है और हम इसे सुख समझने लगते हैं।
यदि हम स्वयं को आत्मा मानते हैं और हमारा प्रयोजन केवल आत्मा को सुख प्रदान करना होता है तब हमारे लिए ऐसी कामनाओं का परित्याग करना सुगम होता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि इन इन्द्रियों पर संयम रखो ताकि इनमें व्याप्त वासना का संहार किया जा सके। ऐसी दक्षता पाने के लिए हमें भगवान द्वारा प्रदत्त दिव्य शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए जिनका वर्णन श्रीकृष्ण अगले श्लोक में कर रहे हैं।
भगवान् ने अर्जुन को प्रारम्भ से ही इन्द्रिय-संयम करने का उपदेश दिया जिससे वह सबसे पापी शत्रु काम का दमन कर सके जो आत्म-साक्षात्कार तथा आत्मज्ञान की उत्कंठा को विनष्ट करने वाला है ।
PURPORT
An inferior entity can be controlled by its superior entity. Sri Krsna explains the gradation of superiority amongst the instruments God has provided to us.
He describes that the body is made of gross matter; superior to it are the five knowledge-bearing senses (which grasp the perceptions of taste, touch, sight, smell, and sound);
beyond the senses is the mind; superior to the mind is the intellect, with its ability to discriminate; but even beyond the intellect is the divine soul.
_Paraṁ dṛṣṭvā nivartate_ If the mind is engaged in the transcendental service of the Lord, there is no chance of its being engaged in the lower propensities.
This knowledge of the sequence of superiority amongst the senses, mind, intellect, and soul, can now be used for rooting out lust,
as explained in the final verse of this chapter.