श्रीमद् भगवत गीता
३ अध्याय – कर्म योग
१३ श्लोक
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा | तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति || १३ ||
भावार्थ ( श्रीमद् भगवत गीता )
जैसे देहधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था और वृद्धावस्था की ओर निरन्तर अग्रसर होती है, वैसे ही मृत्यु के समय आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। बुद्धिमान मनुष्य ऐसे परिवर्तन से मोहित नहीं होते।
श्रीकृष्ण सटीक तर्क के साथ आत्मा के एक जन्म से दूसरे जन्म में देहान्तरण के सिद्धान्त को सिद्ध करते हैं। वे यह समझा रहे हैं कि किसी भी मनुष्य के जीवन में उसका शरीर बाल्यावस्था से युवावस्था, प्रौढ़ता और बाद में वृद्धावस्था में परिवर्तित होता रहता है।
आधुनिक विज्ञान से भी यह जानकारी मिलती है कि हमारी शरीर की कोशिकाएँ पुनरूज्जीवित होती रहती हैं। पुरानी कोशिकाएँ जब नष्ट हो जाती हैं तो नयी कोशिकाएँ उनका स्थान ले लेती हैं।
एक अनुमान के अनुसार सात वर्षों में हमारे शरीर की सभी कोशिकाएँ प्राकृतिक रूप से परिवर्तित होती हैं। इसके अतिरिक्त कोशिकाओं के भीतर के अणु और अधिक शीघ्रता से परिवर्तित होते हैं।
हमारे द्वारा ली जाने वाली प्रत्येक श्वास के साथ ऑक्सीजन के अणु उपापचय प्रक्रिया द्वारा हमारी कोशिकाओं में मिल जाते हैं और वे अणु जो अब तक हमारी कोशिकाओं के भीतर फंसे थे,
वे कार्बन डाईआक्साइड के रूप में बाहर निकल जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार एक वर्ष के दौरान हमारे शरीर के लगभग 98 प्रतिशत अणु परिवर्तित होते हैं और फिर भी शरीर के क्रमिक विकास के पश्चात हम स्वयं को वही व्यक्ति समझते हैं।
क्योंकि हम भौतिक शरीर नहीं हैं अपितु इसमें दिव्य आत्मा निवास करती है। इस श्लोक में देहे का अर्थ ‘शरीर’ और देहि का अर्थ ‘शरीर का स्वामी’ या आत्मा है।
श्रीकृष्ण अर्जुन का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करते हुए अवगत कराते हैं कि शरीर में केवल एक ही जीवन तक क्रमिक परिर्वतन होता रहता है जबकि आत्मा कई शरीरों में प्रवेश करती रहती है।
श्रीकृष्ण अर्जुन का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करते हुए अवगत कराते हैं कि शरीर में केवल एक ही जीवन तक क्रमिक परिर्वतन होता रहता है जबकि आत्मा कई शरीरों में प्रवेश करती रहती है।
समान रूप से मृत्यु के समय यह दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। वास्तव में जिसे हम लौकिक शब्दों में मृत्यु कहते हैं, वह केवल आत्मा का अपने पुराने दुष्क्रियाशील शरीर से अलग होना है
और जिसे हम ‘जन्म’ कहते हैं, वह आत्मा का कहीं पर भी किसी नये शरीर में प्रविष्ट होना है। यही पुनर्जन्म का सिद्धान्त है।
आधुनिक युग के अधिकतर दर्शन भी पुनर्जन्म की धारणा को स्वीकार करते हैं। यह हिन्दू, जैन, और सिख धर्म का अभिन्न अंग है। बौद्ध धम में महात्मा बुद्ध ने अपने पूर्वजन्मों की बार-बार चर्चा की है।
अधिकतर लोग नहीं जानते है कि पुनर्जन्म पाश्चात्य दर्शन की आस्था पद्धति का भी बृहत अंश था। जिस मनुष्य को व्यष्टि आत्मा, परमात्मा तथा भौतिक और आध्यात्मिक प्रकृति का पूर्ण ज्ञान होता है वह धीर कहलाता है |
ऐसा मनुष्य कभी भी शरीर-परिवर्तन द्वारा ठगा नहीं जाता | श्रीकृष्ण पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि बुद्धिमान पुरूष कभी शोक नहीं करता। किन्तु वास्तविकता यह है कि हम सुख और दुख का अनुभव करते हैं। इसके क्या कारण हैं?
अगले श्लोक में भगवान इस संकल्पना को स्पष्ट करते हैं।
PURPORT
With immaculate logic, Sri Krishna establishes the principle of transmigration of the soul from lifetime to lifetime. He explains that in one lifetime itself,
we change bodies from childhood to youth to maturity and then to old age. In fact, modern science informs us that cells within the body undergo regeneration
—old cells die away and new ones take their place. It is estimated that within seven years, practically all the cells of the body change. Further, the molecules within the cells change even more rapidly.
With every breath we inhale, oxygen molecules are absorbed into our cells via the metabolic processes, and molecules that were heretofore locked within the cells are released as carbon dioxide.
Scientists estimate that in one year’s time,
about ninety-eight percent of our bodily molecules change. And yet, despite the continual change of the body, we perceive that we are the same person.
That is because we are not the material body, but the spiritual soul seated within. i
In this verse, the word deha means “the body” and dehi means “possessor of the body,” or the soul. Sri Krsna draws Arjun’s attention to the fact that,
since the body is constantly changing, in one lifetime itself, the soul passes through many bodies. Similarly, at the time of death, it passes into another body.
Actually, what we term as “death” in worldly parlance is merely the soul discarding its old dysfunctional body, and what we call “birth” is the soul taking on a new body elsewhere.
This is the principle of reincarnation.
Any man who has perfect knowledge of the constitution of the individual soul, the Supersoul, and nature – both material and spiritual
– is called a dhīra, or a most sober man. Such a man is never deluded by the change of bodies.