शिव पुराण
पांचवां अध्याय – श्री रूद्र संहिता (द्वितीय खंड)
विषय:- संध्या का चरित्र
सूत जी बोले– हे ऋषियो ! नारद जी के इस प्रकार प्रश्न करने पर ब्रह्माजी ने कहा- मुने! संध्या का चरित्र सुनकर समस्त कामनियां सती-साध्वी हो सकती हैं। वह संध्या मेरी मानस पुत्री थी, जिसने घोर तपस्या करके अपना शरीर त्याग दिया था।
फिर वह मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि की पुत्री अरुंधती के रूप में जन्मी संध्या ने तपस्या करते हुए अपना शरीर इसलिए त्याग दिया था क्योंकि वह स्वयं को पापिनी समझती थी। उसे देखकर स्वयं उसके पिता और भाइयों में काम की इच्छा जाग्रत हुई थी। तब उसने इसका प्रायश्चित करने के बारे में सोचा तथा निश्चय किया कि वह अपना शरीर वैदिक अग्नि में जला देगी, जिससे मर्यादा स्थापित हो। भूतल पर जन्म लेने वाला कोई भी जीव तरुणावस्था से पहले काम के प्रभाव में नहीं आ पाएगा। यह मर्यादा स्थापित कर मैं अपने जीवन का त्याग कर दूंगी।
मन में ऐसा विचार करके संध्या चंद्रभाग नामक पर्वत पर चली गई। यहीं से चंद्रभागा नदी का आरंभ हुआ। इस बात का ज्ञान होने पर मैंने वेद-शास्त्रों के पारंगत, विद्वान, सर्वज्ञ और ज्ञानयोगी पुत्र वशिष्ठ को वहां जाने की आज्ञा दी। मैंने वशिष्ठ जी को संध्या को विधिपूर्वक दीक्षा देने के लिए वहां भेजा था।
नारद! चंद्रभाग पर्वत पर एक देव सरोवर है, जो जलाशयोचित गुणों से पूर्ण है। उस सरोवर के तट पर बैठी संध्या इस प्रकार सुशोभित हो रही थी, जैसे प्रदोष काल में उदित चंद्रमा और नक्षत्रों से युक्त आकाश शोभा पाता है। तभी उन्होंने चंद्रभागा नदी का भी दर्शन किया। तब उस सरोवर के तट पर बैठी संध्या से वशिष्ठ जी ने आदरपूर्वक पूछा, हे देवी! तुम इस निर्जन पर्वत पर क्या कर रही हो? तुम्हारे माता-पिता कौन हैं ?
यदि यह छिपाने योग्य न हो तो कृपया मुझे बताओ। यह वचन सुनकर संध्या ने महर्षि वशिष्ठ की ओर देखा। उनका शरीर दिव्य तेज से प्रकाशित था। मस्तक पर जटा धारण किए वे साक्षात कोई पुण्यात्मा जान पड़ते थे। संध्या ने आदरपूर्वक प्रणाम करते हुए वशिष्ठ जी को अपना परिचय देते हुए कहा- ब्रह्मन् । मैं ब्रह्माजी की पुत्री संध्या हूं। मैं इस निर्जन पर्वत पर तपस्या करने आई हूँ। यदि आप उचित समझें तो मुझे तपस्या की विधि बताइए । मैं तपस्या के नियमों को नहीं जानती हूं। अतः मुझ पर कृपा करके आप मेरा उचित मार्गदर्शन करें। संध्या की बात सुनकर वशिष्ठ जी ने जान लिया कि देवी संध्या मन में तपस्या का दृढ़ संकल्प कर चुकी हैं। इसलिए वशिष्ठ जी ने भक्तवत्सल भगवान शिव का स्मरण करते हुए कहा-
हे देवी! जो सबसे महान और उत्कृष्ट हैं, सभी के परम आराध्य हैं, जिन्हें परमात्मा कहा जाता है, तुम उन महादेव शिव को अपने हृदय में धारण करो। भगवान शिव ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्रोत हैं। तुम उन्हीं का भजन करो। ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का जाप करते हुए मौन तपस्या करो। उसके अनुसार मौन रहकर ही स्नान तथा शिव पूजन करो।
प्रथम दोबार छठे समय में जल को आहार के रूप में लो। तीसरी बार छठा समय आने पर उपवास करो। देवी! इस प्रकार की गई तपस्या ब्रह्मचर्य का फल देने वाली तथा अभीष्ट मनोरथों को पूरा करने वाली होती है। अपने मन में शुभ उद्देश्य लेकर शिवजी का मनन व चिंतन करो। वै प्रसन्न होकर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करेंगे। इस प्रकार संध्या को तपस्या की विधि बताकर और उपदेश देकर मुनि वशिष्ठ वहां से अंतर्धान हो गए।