शिव पुराण
नवां अध्याय - श्री रुद्र संहिता (पंचम खण्ड)
विषय - भगवान शिव की यात्रा
सनत्कुमार जी बोले-
हे महर्षि! भगवान शिव के लिए बनाया गया वह दिव्य रथ अनेकानेक आश्चयों से युक्त था। विश्वकर्मा द्वारा बनाया गया वह रथ ब्रह्माजी ने भगवान शिवशंकर को समर्पित कर दिया।
तत्पश्चात श्रीहरि विष्णु, ब्रह्माजी और सभी देवता एवं ऋषि-मुनि कल्याणकारी भगवान शिव की प्रार्थना करने लगे। उन्होंने भगवान शिवशंकर को दिव्य रथ पर आरूढ़ किया। स्वयं ब्रह्माजी उस रथ के सारथी बने।
भगवान शिव के रथ पर आरूढ़ होते ही चारों दिशाओं में मंगल गान होने लगे, पुष्प वर्षा होने लगी। ब्रह्माजी ने सर्वेश्वर शिव की आज्ञा लेकर रथ को आगे बढ़ाया। वह उत्तम दिव्य रथ भगवान शिवशंकर को लेकर विद्युत की गति से आकाश में उड़ने लगा।
जब भगवान शिवशंकर का वह दिव्य रथ तेजी से आकाश मार्ग से होता हुआ उन त्रिपुरों की ओर जा रहा था तो बीच मार्ग में ही कल्याणकारी देवाधिदेव भगवान शिवशंकर ब्रह्माजी से बोले – हे विधाता!
तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक परम बलशाली राक्षसों का वध करने के लिए मुझे उनके समान ही शक्ति चाहिए। वे तीनों असुर पहले मेरे। परम भक्त थे परंतु श्रीहरि की माया से मोहित होकर उन्होंने भक्ति मार्ग को त्याग दिया है।
अब उन त्रिपुर स्वामियों में तामसिक प्रवृत्ति बढ़ गई है, पशुत्व बढ़ गया है। अतः उन तीनों दैत्यों का संहार करने के लिए मुझे भी पशुओं की सी शक्ति की आवश्यकता होगी। अतः आप सब देवता पशुत्व की वृद्धि करने हेतु पशुओं का आधिपत्य मुझे प्रदान करें।
तभी उन असुरों का वध हो पाएगा। भगवान शिवशंकर के इस प्रकार के वचन सुनकर सभी देवता चिंतित । हो गए और सोच में डूब गए। पशुत्व की बात सुनकर उनका मन अप्रसन्न हो गया। देवताओं को सोच में देखकर भक्तवत्सल भगवान शिवशंकर को स्थिति समझते देर न लगी। वे देवताओं की चिंता तुरंत समझ गए।
देवताओं से भगवान शिव ने कहा- देवताओ! इस प्रकार दुखी मत हो। मैं तुम्हारे दुख का कारण समझ गया हूं। तुम लोग यह कदापि मत सोचो कि पशुत्व से तुम्हारा पतन हो जाएगा। मैं तुम्हें पशुत्व से मुक्ति का मार्ग बताता हूं।
हे देवताओ! जो भी पवित्र मन और स्वच्छ निर्मल हृदय एवं उत्तम भक्ति भावना से दिव्य पाशुपत व्रत को पूरा करेंगे, वे सदा-सदा के लिए पशुत्व से मुक्त हो जाएंगे। तुम्हारे अतिरिक्त जो मनुष्य भी पाशुपत व्रत का पालन करेंगे, उन्हें भी पशुत्व से मुक्ति मिल जाएगी।
हे देवताओ! नित्य ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बारह, छः अथवा तीन वर्षों तक पाशुपत व्रत का पालन करने से सभी मनुष्यों एवं देवताओं को पशुत्व से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी तथा मोक्ष की प्राप्ति होगी। उसका कल्याण होगा, क्योंकि पाशुपत व्रत परम कल्याणकारी है।
भगवान शिवशंकर के इन वचनों को सुनकर ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु एवं सभी देवी-देवता बहुत प्रसन्न हुए और देवाधिदेव भक्तवत्सल भगवान शिवशंकर की जय-जयकार करने लगे। तब सब देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए पशु बन गए।
तभी से सदाशिव ‘पशुपति’ नाम से जगत में विख्यात हुए। उनका पशुपति नाम अत्यंत कल्याणकारी एवं अभीष्ट की सिद्धि देने वाला है। उस समय भगवान शिवशंकर के स्वरूप को देखकर सभी देवता एवं ऋषिगण बहुत प्रसन्न हुए। तत्पश्चात भगवान शिव ने अन्य देवताओं के साथ त्रिपुरों की ओर प्रस्थान किया।
उस समय सारे देवता अपने हाथों में हल, मूसल, भुशुंडि और अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करके हाथी, घोड़े, सिंह, रथ और बैलों पर सवार होकर चल दिए।
भगवान शिव की जय-जयकार करते हुए वे आगे बढ़ते जा रहे थे। आकाश से उन पर फूलों की वर्षा हो रही थी।
कल्याणकारी भगवान शिव के साथ उनके केश, विगतवास, महाकेश, महाज्वर, सोमवल्ली, सवर्ण, सोमप, सनक, सोमधृक्, सूर्यवर्चा, सूर्यप्रेक्षणक, सूर्याक्ष, सूरिनामा, सुर, सुंदर, प्रस्कंद, कुंदर, चंड, कंपन, अतिकंपन, इंद्र, इंद्रजय, यंता,
हिमकर, शताक्ष, पंचाक्ष, सहस्राक्ष, महोदर, सतीजहु, शतास्य, रंक, कर्पूरपूतन, द्विशिख, त्रिशिख, अंहकारकारक, अजवक्त्र, अष्टवक्त्र, हयवक्त्र, अर्द्धवक्त्र आदि महावीर बलशाली गणाध्यक्ष उनको घेरकर चल रहे थे।
इस प्रकार देवाधिदेव भगवान शिवशंकर के साथ ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु, देवराज इंद्र सहित अनेकों देवता, ऋषि-मुनि, साधु-संत भी अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ होकर त्रिपुरों के स्वामियों व त्रिपुरों का संहार देखने हेतु उनके साथ-साथ चल दिए।