शिव पुराण
छठा अध्याय – श्री रूद्र संहिता (द्वितीय खंड)
विषय:-संध्या की तपस्या
ब्रह्माजी बोले– हे महाप्रज्ञ नारद! तपस्या की विधि बताकर जब वशिष्ठ जी चले गए, तब संध्या आसन लगाकर कठोर तप शुरू करने लगी। वशिष्ठ जी द्वारा बताए गए विधान एवं मंत्र द्वारा संध्या ने भगवान शिव की आराधना करनी आरंभ कर दी। उसने अपना मन शिवभक्ति में लगा दिया और एकाग्र होकर तपस्या में मग्न हो गई। तपस्या करते-करते चार युग बीत गए। तब भगवान शिव प्रसन्न हुए और संध्या को अपने स्वरूप के दर्शन दिए, जिसका चिंतन संध्या द्वारा किया गया था। भगवान का मुख प्रसन्न था। उनके स्वरूप से शांति बरस रही थी। संध्या के मन में विचार आया कि मैं महादेव की स्तुति कैसे करूं? इसी सोच में संध्या ने नेत्र बंद कर लिए। भगवान शिव ने संध्या के हृदय में प्रवेश कर उसे दिव्य ज्ञान दिया। साथ ही दिव्य वाणी और दिव्य दृष्टि भी प्रदान की। संध्या ने प्रसन्न मन से भगवान शिव की स्तुति की।
संध्या बोली– हे निराकार ! परमज्ञानी, लोकस्रष्टा, भगवान शिव, मैं आपको नमस्कार करती हूं। जो शांत, निर्मल, निर्विकार और ज्ञान के स्रोत हैं। जो प्रकाश को प्रकाशित करते हैं, उन भगवान शिव को मैं प्रणाम करती हूं। जिनका रूप अद्वितीय, शुद्ध, माया रहित, प्रकाशमान, सच्चिदानंदमय नित्यानंदमय, सत्य, ऐश्वर्य से युक्त तथा लक्ष्मी और सुख देने वाला है, उन परमपिता परमेश्वर को मेरा नमस्कार है।
जो सत्वप्रधान, ध्यान योग्य, आत्मस्वरूप, सारभूत सबको पार लगाने वाला तथा परम पवित्र है, उन प्रभु को मेरा प्रणाम है। भगवान शिव आपका स्वरूप शुद्ध, मनोहर, रत्नमय, आभूषणों से अलंकृत एवं कपूर के समान है। आपके हाथों में डमरू, रुद्राक्ष और त्रिशूल शोभा पाते हैं। आपके इस दिव्य, चिन्मय, सगुण साकार रूप को मैं नमस्कार करती हूं। आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल सभी आपके रूप हैं। हे प्रभु! आप ही ब्रह्मा जी के रूप में जगत की सृष्टि, विष्णु जी रूप में संसार का पालन करते हैं। आप ही रुद्र रूप धरकर संहार करते हैं। जिनके चरणों से पृथ्वी तथा अन्य शरीर से सारी दिशाएं, सूर्य, चंद्रमा एवं अन्य देवता प्रकट हुए हैं, जिनकी नाभि से अंतरिक्ष का निर्माण हुआ है, वे ही सद्ब्रह्म तथा परब्रह्म हैं आपसे ही सारे जगत की उत्पत्ति हुई है। जिनके स्वरूप और गुणों का वर्णन स्वयं ब्रह्मा, विष्णु भी नहीं कर सकते, भला उन त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की स्तुति में कैसे कर सकती हूं? मैं एक अज्ञानी और मूर्ख स्त्री हूँ। मैं किस तरह आपको पूजूं कि आप मुझ पर प्रसन्न हों। है प्रभु! मैं बारंबार आपको नमस्कार करती हूं।
ब्रह्माजी बोले- नारद! संध्या द्वारा कहे गए वचनों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। उसकी स्तुति ने उन्हें द्रवित कर दिया। भगवान शिव बोले- हे देवी! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। अतः तुम्हारी जो इच्छा हो वह वर मांगो। तुम्हारी इच्छा में अवश्य पूर्णकरूंगा। भगवान शिव के ये वचन सुनकर संध्या खुशी से उन्हें बार-बार प्रणाम करती हुए बोली- हे महेश्वर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न होकर कोई वर देना चाहते हैं और यदि मैं अपने पूर्व पापों से शुद्ध हो गई हूं तो हे महेश्वर! हे देवेश! आप मुझे वरदान दीजिए कि आकाश,
पृथ्वी और किसी भी स्थान में रहने वाले जो भी प्राणी इस संसार में जन्म लें, वे जन्म लेते ही काम भाव से युक्त न हो जाएं। हे प्रभु! मेरे पति भी सुहृदय और मित्र के समान हों और अधिक कामी न हों। उनके अलावा जो भी मनुष्य मुझे सकाम भाव से देखे, वह पुरुषत्वहीन अर्थात नपुंसक हो जाए। हे प्रभु! मुझे यह वरदान भी दीजिए कि मेरे समान विख्यात और परम तपस्विनी तीनों लोकों में और कोई न हो।निष्पाप संध्या के वरदान मांगने को सुनकर भगवान शिव बोले- हे देवी संध्या ! तथास्तु! तुम जो चाहती हो, मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ। प्राणियों के जीवन में अब चार अवस्थाएं होंगी। पहली शैशव अवस्था, दूसरी कौमार्यावस्था, तीसरी यौवनावस्था और चौथी वृद्धावस्था । तीसरी अवस्था अर्थात यौवनावस्था में ही मनुष्य सकाम होगा।
कहीं-कहीं दूसरी अवस्था के अंत में भी प्राणी सकाम हो सकते हैं। तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर ही मैंने यह मर्यादा निर्धारित की है। तुम परम सती होगी और तुम्हारे पति के अतिरिक्त जो भी मनुष्य तुम्हें सकाम भाव से देखेगा वह तुरंत पुरुषत्वहीन हो जाएगा। तुम्हारा पति महान तपस्वी होगा, जो कि सात कल्पों तक जीवित रहेगा। इस प्रकार मैंने तुम्हारे द्वारा मांगे गए दोनों वरदान तुम्हें प्रदान कर दिए हैं। अब मैं तुम्हें तुम्हारी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने का साधन बताता हूँ। तुमने अग्नि में अपना शरीर त्यागने की प्रतिज्ञा की थी। मुनिवर मेधातिथि का एक यज्ञ चल रहा है, जो कि बारह वर्षों तक चलेगा। उसमें अग्नि बड़े जोरों से जल रही है। तुम उसी अग्नि में अपना शरीर त्याग दो चंद्रभागा नदी के तट पर ही तपस्वियों का आश्रम है, जहां महायज्ञ हो रहा है। तुम उसी अग्नि से प्रकट होकर मेधातिथि की पुत्री होगी। अपने मन में जिस पुरुष की इच्छा करके तुम शरीर त्यागोगी वही पुरुष तुम्हें पति रूप में प्राप्त होगा। संध्या, जब तुम इस पर्वत पर तपस्या कर रही थीं तब त्रेता युग में प्रजापति दक्ष की बहुत सी कन्याएं हुईं। उनमें से सत्ताईस कन्याओं का विवाह उन्होंने चंद्रमां से कर दिया। चंद्रमा उन सबको छोड़कर केवल रोहिणी से प्रेम करते थे। तब दक्ष ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया।
चंद्रमा को शाप से मुक्त कराने के लिए उन्होंने चंद्रभागा नदी की रचना की। उसी समय मेधातिथि यहां उपस्थित हुए थे। उनके समान कोई तपस्वी न है, न होगा। उन्हीं का ‘ज्योतिष्टोम’ नामक यज्ञ चल रहा है, जिसमें अग्निदेव प्रज्वलित हैं। तुम उसी आग में अपना शरीर डालकर पवित्र हो जाओ और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो। इस प्रकार उपदेश देकर भगवान शिव वहां से अंतर्धान हो गए।*