IUNNATI SHIV PURAN शिव पुराण चौंतीसवां अध्याय – पद्मा-पिप्पलाद की कथा

शिव पुराण चौंतीसवां अध्याय – पद्मा-पिप्पलाद की कथा

शिव पुराण 

 चौंतीसवां अध्याय – श्री रुद्र संहिता (तृतीय खण्ड)

 विषय:–पद्मा-पिप्पलाद की कथा

 ब्रह्माजी बोले- नारद जी! शैलराज हिमालय राजा अनरण्य की कथा सुनकर बोले कि हे मुनि वशिष्ठ! आपने मुझे बहुत ही उत्तम कथा सुनाई है। अब मुझ पर कृपा करके मुझे ऋषि पिप्पलाद और देवी पदमा के विवाह से आगे की भी कथा सुनाइए। पदमा को पत्नी बनाकर ऋषि कहां गए और उन्होंने क्या किया?

 शैलराज हिमालय के इस प्रकार कहे प्रश्नों को सुनकर मुनि वशिष्ठ बोले- पर्वतराज ! ऋषि पिप्पलाद अत्यंत वृद्ध थे, उनकी कमर झुकी हुई थी तथा वे कांप-कांप कर आगे चल पाते थे। इस प्रकार बूढ़े ऋषि की पत्नी बनकर देवी पद्मा उनके साथ उनकी कुटिया में आ गई। पद्मा रूपवती होने के साथ-साथ गुणवती भी थी। वह साक्षात लक्ष्मी का रूप थी। अपने पति को वह साक्षात विष्णु समझकर उनकी सेवा करती थी। एक दिन की बात है देवी पद्मा स्वर्णदा नामक नदी में स्नान करने गई, तभी धर्मराज वहां आ पहुंचे और उनके मन में पद्मा की परीक्षा लेने की बात आई। धर्मराज ने राजसी वस्त्रों एवं आभूषणों को धारण किया और रथ में बैठ गए। रथ में बैठे वे साक्षात कामदेव प्रतीत हो रहे थे। देवी प‌द्मा को मार्ग में ही रोककर उन्होंने कहा- देवी! आप तो परम सुंदरी हैं। आपकी सुंदरता को देखकर तो चांद भी शरमा जाए। आप तो राजरानी बनने योग्य हैं। आप इस भयानक जंगल में उस बूढ़े पिप्पलाद के साथ क्या कर रही हैं? वह बूढ़ा तो मृत्यु के बहुत पास है? देवी! आप उसको त्यागकर मेरे साथ चलें। मैं आपको अपने हृदय में स्थान दूंगा। आप मेरी रानी बनकर राज करेंगी। आपकी सेवा करने के लिए हजारों दासियां होंगी, जो आपकी हर आज्ञा को शिरोधार्य करेंगी। मैं स्वयं आपका दास बनकर रहूंगा।

 यह कहकर धर्मराज रथ से नीचे उतरकर देवी पद्मा का हाथ पकड़ने हेतु आगे बढ़े। यह देखकर पद्मा क्रोधित हो गईं और पीछे हटकर जोर से बोलीं- अरे मूर्ख ! अज्ञानी! अधर्मी! पापी! दूर हट जा। यदि तूने मुझे स्पर्श भी किया तो तू नष्ट हो जाएगा। तू काम में अंधा होकर मेरे पतिव्रत धर्म को भ्रष्ट करना चाहता है। तू क्या सोचता है कि तेरा यह राजसी रूप और धन देखकर में अपने परम पूज्य महातेजस्वी ऋषि पिप्पलाद को त्याग दूंगी? नहीं, कदापि नहीं। याद रख, यदि तू मुझे बुरी नजर से देखेगा तो भस्म हो जाएगा। देवी पद्मा के शाप को सुनकर धर्मराज भयभीत हो गए। ।

उन्होंने तुरंत राजा का वेश त्याग दिया और अपने असली रूप में आकर बोले-माता! मैं धर्म हूं। मैं ज्ञानियों का गुरु हूं और हर स्त्री को सदैव अपनी माता मानता हूं। मैंने यह सब आपकी परीक्षा लेने के लिए ही किया है। मेरा जन्म ही इसलिए हुआ है कि में धर्मात्मा मनुष्यों की धर्म संबंधी परीक्षा लेकर उन्हें धर्म में दृढ़ करूं परंतु देवी आपने मुझे शाप दे दिया है, अब मेरा क्या होगा? यह कहकर धर्मराज चुपचाप खड़े हो गए। तब देवी पद्मा ने कहा- हे धर्मराज! आप तो इस संसार के सभी जीवों के कमों के साक्षी हैं। फिर मेरी परीक्षा लेने के लिए आपको यह सब ढोंग करने की क्या आवश्यकता थी? अब तो शब्द मेरे मुंह से निकल चुके हैं। जिस प्रकार कमान से निकला तीर कमान में वापिस नहीं जा सकता, उसी प्रकार मेरा शाप मिथ्या नहीं हो सकता। धर्म आपके चार पाद हैं। सतयुग में तुम्हारे चारों पाद होंगे, त्रेता युग में तीन पाद होंगे और द्वापर युग में दो पाद होंगे। कलियुग में एक भी पाद नहीं होगा परंतु जब पुनः सतयुग शुरू होगा तो तुम्हारे चारों पाद पूर्व की भांति वापिस आ जाएंगे। पद्मा के वचनों को सुनकर धर्मराज प्रसन्न हो गए और कहने लगे- देवी! आप धन्य हैं। आप अति पतिव्रता हैं। आपका अपने पति से अटूट प्रेम है। आप सदा ही उनके चरणों से प्रेम करोगी। मैं आपके पतिव्रत धर्म से प्रसन्न होकर आपको वरदान देता हूं कि आपके पति जवान हो जाएं तथा उनकी जवानी स्थिर रहे। वे मार्कण्डेय के समान दीर्घायु हों, कुबेर के समान धनवान तथा इंद्र के समान सुंदर एवं वैभव संपन्न हों।

देवी! आपको शीघ्र ही दस पुत्रों की प्राप्ति होगी, जो कि गुणवान व दीर्घायु होंगे। यह कहकर धर्म अंतर्धान हो गए और देवी पद्मा अपने घर वापिस आ गई। उसने घर पहुंचकर देखा तो उसके पति धर्म के वरदान के अनुसार जवान हो गए थे। उनके घर में सुख- विलास की सभी वस्तुएं मौजूद थीं। इस प्रकार पिप्पलाद और पद्मा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। कुछ समय पश्चात देवी पद्मा को दस पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिन्हें पाकर दंपति का जीवन खुशियों से भर गया।

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