शिव पुराण
चवालीसवां अध्याय – श्री रूद्र संहिता (तृतीय खंड)
विषय:–मैना का विलाप एवं हठ
ब्रह्माजी बोले- नारद! जब हिमालय पत्नी मैना को होश आया तब वे बड़ी दुखी थीं और रोए जा रही थीं। उनका जोर-जोर से दहाड़ें मार-मारकर रोना रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। वे रोते हुए अपने पुत्रों, पुत्री तथा अपने पति गिरिराज हिमालय सहित देवर्षि नारद व सप्तऋषियों की निंदा करते हुए उन्हें कोस रही थीं। मैना बोलीं- हे नारद मुनि! आपने ही हमारे घर आकर यह कहा था कि शिवा शिव का वरण करेंगी। तुम्हारी बातों को मानकर हम सबने अपनी पुत्री पार्वती को भगवान शिव की तपस्या करने के लिए वनों में भेज दिया। मेरी बेटी ने अपने तप के द्वारा सभी को प्रसन्न कर दिया। उसने ऐसी तपस्या की जो कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिए भी कठिन है। परंतु उसकी इतनी पूजा-आराधना का यह फल उसे मिला, जो कि देखने में भी दुख देने वाला है। इसे देखकर हमें अत्यंत दुख और भय प्राप्त हुआ है
हे भगवान! मैं क्या करूं? कहां जाऊं? भला कौन मुझे इस असह्य दुख से छुटकारा दिला सकता है? मैं तो किसी को भी अपना मुंह दिखाने योग्य नहीं रही। भला, कोई देखो वे दिव्य सप्तऋषि और उनकी वो धूर्त पत्नी अरुंधती कहां चली गईं, जो मुझे समझाने आई थीं। जिसने नमु मुझे झूठ-सच कह कहकर जबरदस्ती इस विवाह के। लिए मेरी स्वीकृति ले ली थी। यदि वे मेरे सामने आ जाएं तो मैं उन ऋषियों की दाढ़ी-मूंछ नोच लूं। हाय! मेरा तो सबकुछ लुट गया। मैं तो पूरी तरह से बरबाद हो गई हूं। यह कहकर देवी मैना अपनी पुत्री पार्वती से बोलीं- तूने हमसे कौन से जन्म का बदला लिया है? तूने यह क्या कार्य कर दिया, जो तेरे माता-पिता के लिए अत्यंत दुख का कारण बन गया है। इस प्रकार मैना पार्वती को खूब खरी-खोटी सुनाने लगीं। वे कहने लगीं कि नासमझ तूने सोने के बदले कांच खरीद लिया है। सुंदर सुगंधित चंदन को छोड़कर अपने शरीर पर कीचड़ कीचड़ का लेप कर लिया है। यह मूर्खा तो तो यह भी भी नहीं समझती कि इसने हंस को उड़ाकर उसके स्थान पर कौए को पाल लिया है। गंगाजल, जिसे सबसे पवित्र समझा जाता है, उसको फेंककर कुएं के जल को पी लिया है। उजाले को पाने की चाह लेकर उसके स्रोत सूर्य को छोड़कर जुगनू को पकड़ने के लिए दौड़ रही है।
चावल के भूसे को रखकर अच्छे चावलों को फेंक रही है। बेटी, तूने हमारे कुल के यश का सर्वनाश करने की इच्छा कर ली है। तभी तो, मंगलमयी विभूति को फेंककर घर में चिता की अमंगलमयी राख को लाना चाहती है। जानवरों के सिरमौर सिंह को त्याग कर सियार के पीछे पड़ी है। पार्वती! तूने बड़ी भारी मूर्खता कर दी है, जो सूर्य, चंद्रमा, श्रीहरि विष्णु और देवराज इंद्र जैसे सुंदर, सर्वगुण संपन्न, परम ऐश्वर्य और वैभव के स्वामियों को छोड़कर दुष्ट नारद की बातों में आकर एक महा-कुरूप शिव के लिए रात-दिन वनों की खाक छानती रही और घोर तपस्या करती रही। तुझे, तेरी बुद्धि, तेरे रूप तथा तेरी सहायता करने वाले प्रत्येक उस मनुष्य को धिक्कार है, है जिसने जि तुझे गलत राह पर चलने में मदद की। हमको भी धिक्कार है जो मैंने और तेरे पिता ने तुझे जन्म दिया। सुबुद्धि देने वाले उन सप्तऋषियों को भी मैं धिक्कारती हूं, जिन्होंने गलत उपदेश देकर मुझे गलत रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया। उन्होंने तो मेरा घर जलाने का पूरा प्रबंध कर दिया है। मेरे कुल को सर्वनाश की कगार पर ले आए हैं। पार्वती! मैंने तुझे कितना समझाया, पर तू अपनी जिद पर अड़ी रही। पर अब और नहीं, अब मैं तेरी एक भी नहीं सुनूंगी। मैं तो अभी तुझे मार डालूंगी, तुझे जीवित रखने का अब कोई प्रयोजन नहीं है। तुझे मारकर खुद की जीवन लीला भी समाप्त कर दूंगी। भले ही मुझे नरक का भागी क्यों न होना पड़े। मेरा दिल करता है कि मैं तेरा सिर काट दूं, तेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दूं। तुझे छोड़कर कहीं चली जाऊं। यह कहकर देवी मैना मूर्छित होकर फर्श पर गिर पड़ीं। तब उस समय उनकी ऐसी हालत देखकर सभी देवता उन्हें समझाने के लिए उनके पास गए। सबसे पहले मैं (ब्रह्मा) उनके पास पहुंचा। तब मुझे वहां देखकर नारद तुमने कहा- ‘देवी! आपको इस बात का ज्ञान नहीं है कि शिवजी बहुत सुंदर हैं। अभी तुमने उनका सही स्वरूप देखा ही कहां है? अभी जो कुछ तुमने देखा है, वह उनकी लीला मात्र है। देवी! आप अपने क्रोध को त्याग दें और स्वस्थ होकर शुद्ध हृदय से विवाह का कार्य आरंभ करें। इतना सुनना था कि मैना के क्रोध की अग्नि भभक उठी, वे बोलीं दुष्ट नारद! यहां से इसी समय चला जा। । तू दुष्टों का भी दुष्ट और नीच है। तू मेरे सामने भूलकर भी मत आना। इसी समय यहां से निकल जा। मैं तेरी सूरत तक देखना नहीं चाहती।
मैना के ये वचन सुनकर इंद्रादि देवता दौड़कर वहां चले आए और बोले- हे पितरों की कन्या मैना! भगवान शिव तो इस समस्त चराचर जगत के स्वामी हैं। वे तो सबको सुख देने वाले तथा सबको मनोवांछित वर देने वाले सर्वेश्वर हैं। वे तो भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। आपकी पुत्री पार्वती ने कठिन तप करके भगवान शिव को प्रसन्न किया है तथा वरदान के रूप में उनको अपना पति होने का वर प्राप्त किया है। तभी तो आज वे अपने दिए वरदान को पूरा करने के लिए उनका पाणिग्रहण करने के लिए यहां पधारे हैं। यह सुनकर मैना और अधिक रोने लगीं और बोलीं- शिव तो बहुत भयंकर हैं। मैं अपनी पुत्री पार्वती कदापि उन्हें नहीं दूंगी। आप सब देवता क्यों ये षडयंत्र रच रहे हैं? आप मेरी प्राणप्रिय, फूलों के समान कोमल पुत्री को क्यों इन भूत-प्रेतों के हवाले करना चाहते हैं? इस प्रकार देवी मैना सब देवताओं पर क्रोधित होकर उन्हें फटकारने लगीं। जब वशिष्ठ आदि सप्तऋषियों ने देवी मैना के इस प्रकार के वचन सुने तो वे भी मैना को समझाने के लिए उनके निकट आ गए। तब वे बोले- हे पितरों की कन्या मैना! हम तो तुम्हारा कार्य सिद्ध करने के लिए यहां आए हैं। भगवान शिव का दर्शन तो सभी पापों का नाश करने वाला है और यहां तो वे स्वयं आपके घर पधारे हैं। इस बात को सुनकर भी देवी मैना को कोई संतोष नहीं हुआ।
उनका क्रोध यथावत रहा तथा उन्होंने फिर कहा कि मैं पार्वती के टुकड़े-टुकड़े कर दूंगी परंतु उसको शिव के साथ नहीं भेजूंगी। दूसरी ओर देवी मैनाके इस व्यवहार से चारों ओर हाहाकार मच गया। जब शैलराज हिमालय को मैना के इस व्यवहार की सूचना मिली तो वे फौरन दौड़ते हुए अपनी पत्नी के पास आए और बोले- हे प्रिये! तुम इतनी क्रोधित क्यों हो रही हो? देखाँ, हमारे घर में कौन-कौन से महात्मा पधारे हैं और तुम इनका अपमान कर रही हो। तुम भगवान शंकर के भयानक रूप को देखकर भयभीत हो गई हो। देवी! वे तो सर्वेश्वर हैं। भय करना छोड़कर उनके मंगलमय रूप का दर्शन करो। विवाह के शुभ कार्यों का शुभारंभ करो। अपने हठ को छोड़ो और क्रोध का त्याग कर शिव-पार्वती विवाह के मंगलमय कार्यों को संपन्न करो। देवी! तुम जानती हो कि भगवान शिव अनुपम लीलाएं करते हैं। यह भी उनकी लीला का एक भाग ही है। अतः तुम अपने मन के डर को दूर करके यथाशीघ्र पूर्ववत कार्य करो। शैलराज हिमालय के ये वचन सुनकर उनकी पत्नी मैना अत्यंत क्रोधित हो गईं और बोलीं – हे स्वामी! आप ऐसा करिए कि पार्वती के गले में रस्सी बांधकर उसे पर्वत से नीचे गिरा दीजिए या फिर उसे समुद्र में डुबो दीजिए। चाहे कुछ भी करके उसकी जीवन लीला समाप्त कर दीजिए। मैं आपको कुछ नहीं कहूंगी, परंतु में पार्वती का हाथ किसी भी परिस्थिति में शिव को नहीं सौपूंगी। यदि फिर भी आपने हठपूर्वक पार्वती का विवाह शिव से करने की ठान ली है, तो मैं अपने प्राणों को त्याग दूंगी।
अपनी माता मैना के ऐसे वचन सुनकर पार्वती उनके करीब आकर बोलीं-माता! आप तो ज्ञान की प्रतिमूर्ति हैं। आप सदा ही धर्म धर्म के पथ का अनुसरण करने वाली हैं। भला आज ऐसा क्या हो गया है, जो आप धर्म के मार्ग से विमुख हो रही हैं। हे माता। महादेवजी तो देवों के देव हैं। वे निर्गुण निराकार हैं। वे तो परब्रह्म परमात्मा हैं और सबके सर्वेश्वर हैं। वे तो इस संसार की उत्पत्ति के आधार हैं। भगवान शिव भक्तवत्सल हैं एवं अपने भक्तों को सदैव सुख प्रदान करने वाले हैं। भगवान शिव सब अनुष्ठानों के अधिष्ठाता हैं। वे ही सबके कर्ता, हर्ता और स्वामी हैं। ब्रह्मा, विष्णु भी सदा उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं। हे माता। आपको तो इस बात का गर्व होना चाहिए कि आपकी पुत्री का हाथ मांगने के लिए देवता भी याचक की भांति आपके दरवाजे पर पधारे हैं। अतः आप बेकार की बातों को छोड़कर उत्तम कार्य करो। मुझे भगवान शिव के हाथों में सौंपकर अपने जीवन को सफल कर लो। माता
मेरी छोटी-सी विनती स्वीकार कर लो और मुझे भगवान शिव के चरणों में उनकी सेवा के लिए समर्पित कर दो। मां! मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा भगवान शिव को अपना पति मान लिया है। अब मैं किसी और का वरण नहीं कर सकती। मैं सिर्फ महादेवजी का ही स्मरण करती हूं। उन्हें पति रूप में पाने की इच्छा लेकर ही मैंने अपने जिंदगी के इतने वर्ष बिताए हैं। भला, आज मैं कैसे अपने वचन से पीछे छे हट जाऊं। पार्वती जी के कहे वचनों को सुनकर मैना क्रोध के आधिक्य से उद्वेलित हो गईं और उसे डांटने तथा बुरे वचन कहने लगीं। मैना रोती जा रही थीं। मैंने और वहां उपस्थित सभी महानतम सिद्धों ने देवी मैना को समझाने का बहुत प्रयत्न किया परंतु सब निरर्थक सिद्ध हुआ। वे किसी भी स्थिति में समझने को तैयार नहीं थीं। तभी उनके हठ की बातें सुनकर परम शिव भक्त भगवान श्रीविष्णु वहां आ पहुंचे और बोले- हे पितरों की मानसी पुत्री एवं शैलराज हिमालय की पत्नी मैना! आप ब्रह्माजी के कुल से संबंधित हैं। इसी कारण आपका सीधा संबंध धर्म से है। आप धर्म की आधारशिला हैं। फिर भला कैसे धर्म का त्याग कर सकती हैं? इस प्रकार हठ करना आपको शोभा नहीं देता। स्वयं सोचिए, भला सभी देवता, ऋषि-मुनि और स्वयं ब्रह्माजी और मैं आपसे असत्य वचन क्यों कहेंगे। भगवान शिव निर्गुण और सगुण दोनों ही हैं। वे कुरूप हैं, तो सुरूप भी हैं। सभी उनका पूजन करते हैं। वे ही सज्जनों की गति हैं। मूल प्रकृति रूपी देवी एवं पुरुषोत्तम का निर्माण भगवान शिव ने ही किया है। मेरी और ब्रह्माजी की उत्पत्ति भी भगवान शिव के द्वारा ही हुई है। उसके बाद सारे लोकों का हित करने के लिए उन्होंने स्वयं भी रुद्र का अवतार धारण कर लिया है। तत्पश्चात वेद, देवता तथा इस जल एवं थल में जो भी चराचर वस्तु या प्राणी दिखाई देता है, उस सारे जगत की रचना भगवान शिव ने ही की है। हे देवी! कोई भी उनके रूप को नहीं जानता है और न ही जान सकता है। यहां तक कि मैं और ब्रह्माजी भी उनकी समस्त लीलाओं को आज तक नहीं जान पाए हैं। इस संसार में जो कुछ भी विद्यमान है, वह भगवान शिव का ही स्वरूप है। यह तो भगवान शिव की ही माया है, जो वे स्वयं आपको अपना रूप इस प्रकार दिखा रहे हैं।
हे देवी! आप सबकुछ भूलकर, सच्चे मन से शिवजी का स्मरण करके उनके चरणों में अपना ध्यान लगाए आपके सारे दुख और क्लेश मिट जाएंगे और आपको परम सुख की प्राप्ति होगी। श्रीहरि विष्णु द्वारा जब मैना को इस प्रकार समझाया गया तो देवी मैना का क्रोथ कुछ कम हुआ। वस्तुतः शिवजी की माया से मोहित होने के कारण ही वे यह सब कर रही थीं। कुछ शांत होने पर उन्होंने कुछ देर मन में विचार किया। तत्पश्चात मैना श्रीहरि विष्णुजी से बोली- प्रभु! मैं आपकी हर बात समझ गई हूं। मैं यह भी जानती हूं कि भगवान शिव सर्वेश्वर हैं और इस जगत के कण-कण में व्याप्त हैं। मैं आपकी इच्छानुसार भगवान शिव को अपनी पुत्री सौंप सकती हूं, पर मेरी एक शर्त है। तब विष्णुजी के आग्रह करने पर देवी मैना ने कहा, यदि महादेव जी सुंदर शरीर धारण कर लें, तो मैं सहर्ष सहर्ष अपनी पुत्री पार्वती का विवाह उनसे कर दूंगी। ऐसा कहकर देवी मैना चुप हो गईं। धन्य हैं भक्तवत्सल त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की माया, जो सबको मोह में डालने वाली है।*