शिव पुराण
सैंतालीसवां अध्याय – श्री रूद्र संहिता (तृतीय खंड)
विषय :- वर-वधू द्वारा एक-दूसरे का पूजन
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! गिरिराज हिमालय ने उत्साहपूर्वक वेद मंत्रों द्वारा पार्वती और शिवजी को उपस्नान करवाया। तत्पश्चात वैदिक और लौकिक आचार रीति का पालन करते हुए भगवान शिव द्वारा लाए गए वस्त्रों एवं आभूषणों से गिरिजानंदिनी देवी पार्वती को सजाया गया।
पार्वती जी की सखियों और वहां उपस्थित ब्राह्मण पत्नियों ने पार्वती को उन सुंदर वस्त्रों एवं सुंदर रत्नजड़ित आभूषणों से से अलंकृत किया। शृंगार करने के उपरांत तीनों लोकों की जननी महाशैलपुत्री देवी शिवा अपने हृदय में महादेव जी का ही ध्यान कर रही थीं। उस समय उनका मुखमंडल चंद्रमा की चांदनी के समान सुंदर व दिव्य लग रहा था। हिमालयनगरी में चारों ओर महोत्सव होने लगा। लोगों की प्रसन्नता और उल्लास देखते ही बनता था। उस समय वहां हिमालय ने शास्त्रोक्त रीति से लोगों को बहुत दान दिया और अन्य वस्तुएं भी बांटीं।
गिरिराज हिमालय के राजपुरोहित मुनि गर्ग जी ने हिमालय से कहा कि हे पर्वतराज। लग्न का समय हो रहा है। आप भगवान शिव तथा अन्य सभी बारातियों को यथाशीघ्र यहां बुला लें। तब शैलराज के मंत्री सब देवताओं सहित भगवान शिव को बुलाने के लिए जनवासे में गए और उन्हें जल्दी विवाह मंडप में पधारने का निमंत्रण दिया। उन्होंने शिवजी से कहा कि प्रभु! कन्यादान का समय नजदीक आ गया है। वर और कन्या को पंडित जी बुला रहे हैं। तब भगवान सुंदर वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर अपने वाहन नंदी पर बैठकर सब देवताओं और ऋषि-मुनियों के साथ मण्डप की ओर चल दिए। साथ में उनके गण भी अपने स्वामी भगवान शिव की जय-जयकार करते हुए नाचते-गाते चलने लगे। शिवजी के मस्तक पर छत्र था और चारों ओर चंवर डुलाया जा रहा था। महान उत्सव हो रहा था। शंख, भेरी, पटह, आनक, गोमुख बाजे बज रहे थे। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। चारों दिशाओं से देवगण उन पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे। इस प्रकार महादेव जी सुशोभित होकर यज्ञ के मंडप पर पहुंचे।
मंडप के द्वार पर उनकी प्रतीक्षा कर रहे पर्वतों ने आदरपूर्वक उन्हें नंदी पर से उतारा और भीतर ले गए। शैलराज हिमालय ने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया और विधि-विधान के अनुसार उनकी आरती उतारी। उन्होंने भगवान श्रीहरि विष्णु, मुझे तथा सदाशिव को पाद्य अर्घ्य दिया और सुंदर उत्तम आसनों पर हमें बैठाया। तत्पश्चात शैलराज प्रिया देवी मैना ब्राह्मण स्त्रियों व पुरवासिनों के साथ वहां पधारीं। उन्होंने अपने दामाद भगवान शिव की आरती उतारी और उनका मधुपर्क से पूजन किया तथा सारे मंगलमय कार्य संपन्न किए।
तत्पश्चात शैलराज हिमालय, मुझे, विष्णुजी व भगवान शिव को साथ लेकर उस स्थान पर गए जहां देवी पार्वती वेदी पर बैठी हुई थीं। तब वहां बैठे सभी ऋषि-मुनि, समस्त देवता व अन्य शिवगण उत्सुकता से शिव-पार्वती के लग्न की प्रतीक्षा करने लगे। हिमालय के कुलगुरु श्री गर्ग जी ने पार्वती जी की अंजलि में चावल भरकर शिवजी के ऊपर अक्षत डाले। तत्पश्चात पार्वती जी ने दही, अक्षत, कुश और जल से आदरपूर्वक भगवान शिव का पूजन किया। पूजन करते समय प्रसन्नतापूर्वक पार्वती भगवान शिव के दिव्य स्वरूप को निहार रही थीं। पार्वती जी के अपने वर शिवजी का पूजन कर लेने के पश्चात गर्ग मुनि के कथनानुसार त्रिलोकीनाथ महादेव जी ने अपनी वधू होने जा रही देवी पार्वती का पूजन किया। इस प्रकार एक-दूसरे का पूजन करने के पश्चात वर-वधू शिव व पार्वती वहीं वेदी पर बैठ गए। उनकी छवि अत्यंत उज्ज्वल और मनोहर थी। दोनों वहां बहुत शोभा पा रहे थे। तब लक्ष्मी आदि सभी देवियों ने उनकी आरती उतारी।