IUNNATI JYOTIRLINGA माता रुक्मिणी महालक्ष्मी की संपूर्ण कथा

माता रुक्मिणी महालक्ष्मी की संपूर्ण कथा

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माता रुक्मिणी महालक्ष्मी की संपूर्ण कथा

द्वारका में रहते हुए भगवान श्रीकृष्ण और बलराम का नाम चारों ओर फैल गया। बड़े-बड़े नृपति और सत्ताधिकारी भी उनके सामने मस्तक झुकाने लगे। उनके गुणों का गान करने लगे। बलराम के बल-वैभव और उनकी ख्याति पर मुग्ध होकर रैवत नामक राजा ने अपनी पुत्री रेवती का विवाह उनके साथ कर दिया। बलराम अवस्था में श्रीकृष्ण से बड़े थे। अतः नियमानुसार सर्वप्रथम उन्हीं का विवाह हुआ।

कृष्ण जी और माता रुक्मिणी महालक्ष्मी का विवाह

1. कृष्ण प्रेम

उन दिनों विदर्भ देश में भीष्मक नामक एक परम तेजस्वी और सद्गुणी नृपति राज्य करते थे। कुण्डिनपुर उनकी राजधानी थी। उनके पांच पुत्र और एक पुत्री थी। उसके शरीर में लक्ष्मी के शरीर के समान ही लक्षण थे। अतः लोग उसे ‘लक्ष्मीस्वरूपा’ कहा करते थे। रुक्मिणी जब विवाह योग्य हो गई तो भीष्मक को उसके विवाह की चिंता हुई।

 रुक्मिणी के पास जो लोग आते-जाते थे, वे श्रीकृष्ण की प्रशंसा किया करते थे। वे रुक्मिणी से कहा करते थे, श्रीकृष्ण अलौकिक पुरुष हैं। इस समय संपूर्ण विश्व में उनके सदृश अन्य कोई पुरुष नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण के गुणों और उनकी सुंदरता पर मुग्ध होकर रुक्मिणि ने मन ही मन निश्चय किया कि वह श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी को भी पति रूप में वरण नहीं करेगी।

2. रुक्मी का द्वेष

उधर भगवान श्रीकृष्ण को भी इस बात का पता हो चुका था कि विदर्भ नरेश भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी परम रूपवती तो है ही, परम सुलक्षणा भी है। भीष्मक का बड़ा पुत्र रुक्मी भगवान श्रीकृष्ण से शत्रुता रखता था। वह बहन रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से करना चाहता था, क्योंकि शिशुपाल भी श्रीकृष्ण से द्वेष रखता था। भीष्मक ने अपने बड़े पुत्र की इच्छानुसार रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के साथ ही करने का निश्चय किया। उसने शिशुपाल के पास संदेश भेजकर विवाह की तिथि भी निश्चित कर दी।

3. कृष्ण जी को संदेश

रुक्मिणी को जब इस बात का पता लगा कि उसका विवाह शिशुपाल के साथ निश्चित हुआ है तो वह बड़ी दु:खी हुई। उसने अपना निश्चय प्रकट करने के लिए एक ब्राह्मण को द्वारका कृष्ण के पास भेजा। 

रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण के पास जो संदेश भेजा था, वह इस प्रकार था-

“हे नंद-नंदन! आपको ही पति रूप में वरण किया है। मै आपको छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह नहीं कर सकती। मेरे पिता मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह शिशुपाल के साथ करना चाहते हैं। विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई। मेरे कुल की रीति है कि विवाह के पूर्व होने वाली वधु को नगर के बाहर गिरिजा का दर्शन करने के लिए जाना पड़ता है। मैं भी विवाह के वस्त्रों में सज-धज कर दर्शन करने के लिए गिरिजा के मंदिर में जाऊंगी। मैं चाहती हूँ, आप गिरिजा मंदिर में पहुँचकर मुझे पत्नी रूप में स्वीकार करें। यदि आप नहीं पहुँचेंगे तो मैं आप अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगी।”

रुक्मिणी का संदेश पाकर भगवान श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर शीघ्र ही कुण्डिनपुर की ओर चल दिए। उन्होंने रुक्मिणी के दूत ब्राह्मण को भी रथ पर बिठा लिया था। श्रीकृष्ण के चले जाने पर पूरी घटना बलराम के कानों में पड़ी। वे यह सोचकर चिंतित हो उठे कि श्रीकृष्ण अकेले ही कुण्डिनपुर गए हैं। अतः वे भी चंद्रवंशी क्षत्रिय राजपूत की सेना के साथ कुण्डिनपर के लिए चल पड़े।

शिशुपाल का बारात लेकर आना उधर, भीष्मक ने पहले ही शिशुपाल के पास संदेश भेज दिया था। फलतः शिशुपाल निश्चित तिथि पर बहुत बड़ी बारात लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचा। बारात क्या थी, पूरी सेना थी। शिशुपाल की उस बारात में जरासंध, पौण्ड्रक, शाल्व और वक्रनेत्र आदि राजा भी अपनी-अपनी सेना के साथ थे। सभी राजा कृष्ण से शत्रुता रखते थे। विवाह का दिन था। 

सारा नगर बंदनवारों और तोरणों से सज्जित था। मंगल वाद्य बज रहे थे। मंगल गीत भी गाए जा रहे थे। पूरे नगर में बड़ी चहल-पहल थी। नगर-नगरवासियों को जब इस बात का पता चला कि श्रीकृष्ण और बलराम भी नगर में आए हुए हैं, तो वे बड़े प्रसन्न हुए। वे मन-ही मन सोचने लगे, कितना अच्छा होता यदि रुक्मिणी का विवाह श्रीकृष्ण के साथ होता, क्योंकि वे ही उसके लिए योग्य वर हैं।

श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी का हरण

कृष्ण जी द्वारा हरण

सन्ध्या के पश्चात का समय था। रुक्मिणी विवाह के वस्त्रों में सज-धजकर गिरिजा के मंदिर की ओर चल पड़ी। उसके साथ उसकी सहेलियाँ और बहुत-से अंगरक्षक भी थे। वह अत्यधिक उदास और चिंतित थी, क्योंकि जिस ब्राह्मण को उसने श्रीकृष्ण के पास भेजा था, वह अभी लौटकर उसके पास नहीं पहुँचा था। रुक्मिणी ने गिरिजा की पूजा करते हुए उनसे प्रार्थना की- “हे मां। तुम सारे जगत की मां हो! मेरी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह नहीं करना चाहती।”

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