शिव पुराण
अध्याय तिरपन – श्री रूद्र संहिता (तृतीय खंड)
विषय: बारात का ठहरना और हिमालय का बारात को विदा करना
ब्रह्माजी बोले- जब करुणानिधान भगवान शिव जनवासे में पधार गए तो हम सब मिलकर कैलाश लौट चलने की बातें करने लगे। तभी वहां पर पर्वतराज हिमालय पधारे और सभी को भोजन का निमंत्रण देकर वहां से चले गए। तब सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों और अन्य बारातियों को साथ लेकर भगवान शिव, में और श्रीहरि विष्णु भोजन ग्रहण करने हेतु नियत स्थान पर पहुंचे।
वहां द्वार पर स्वयं शैलराज खड़े थे। उन्होंने सर्वप्रथम महादेव जी के चरणों को धोया और उन्हें अंदर सुंदर आसन पर बैठाया। तत्पश्चात शैलराज ने मेरे, श्रीहरि, देवराज इंद्र सहित सभी मुनियों के चरण धोए और यथायोग्य आसनों पर हम सबको आदरपूर्वक बैठाया। वहां शैलराज हिमालय अपने पुत्रों एवं बंधु-बांधवों सहित कार्य में लगे हुए थे। उन्होंने हमारे सामने अनेक स्वादिष्ट व्यंजन परोसे और हमसे ग्रहण करने के लिए कहा।
तब सभी ने आनंदपूर्वक आचमन और भोजन किया। तब गिरिराज बोले- हे देवेश्वर! आपके दर्शनों से हम आनंदित हुए हैं। आपसे एक प्रार्थना करते हैं कि आप बारातियों के साथ कुछ दिन और निवास करें। इस प्रकार शैलराज भगवान शिव से कुछ दिन और रुकने का आग्रह करने लगे। उनकी यह बात सुनकर भगवान शिव बोले- हे शैलेंद्र! आप धन्य हैं। आपकी कीर्ति महान है।
आप धर्म की साक्षात मूर्ति हैं। इस त्रिलोक में आपके समान कोई और नहीं है। तब देवताओं ने कहा- हे पर्वतराज! आपके दरवाजे पर परब्रहा परमात्मा भगवान शिव स्वयं अपने दासों के साथ पधारे हैं और आपने उन्हें सब प्रकार से पूजकर प्रसन्न किया है।
तब शैलराज हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान शिव से प्रार्थना करके कहा कि भगवन्, मुझ पर कृपा करके आप कुछ दिन और यहां रुककर मेरा आतिथ्य ग्रहण करें। गिरिराज के बहुत कहने पर भगवान शिव ने वहां ठहरने के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।
तब सब हिमालय से आज्ञा लेकर अपने-अपने ठहरने के स्थान पर चले गए। तीसरे दिन, गिरिराज हिमालय ने सबको आदरपूर्वक दान दिया और उनका सत्कार किया। चौथे दिन, विधिपूर्वक चतुर्थी कर्म किया गया क्योंकि इसके बिना विवाह को पूर्ण नहीं माना जाता। जैसे ही विधि अनुसार चतुर्थी कर्म पूरा हुआ, चारों ओर मंगल ध्वनि बजने लगी।
महान उत्सव होने लगा। नगर की स्त्रियां मंगल गीत गाने लगीं। कुछ तो प्रसन्न होकर नाचने भी लगीं।पांचवें दिन सब देवताओं ने गिरिराज हिमालय से कहा कि हे पर्वतराज! आपने हमारा बहुत आदर सत्कार किया है। हम सब भगवान शिव के विवाह के लिए यहां पधारे थे। आपके सहयोग से शिव-पार्वती का विवाह आनंदपूर्वक, हर्षोल्लास के साथ संपन्न हो गया है।
अतः अब आप हमें यहां से जाने की आज्ञा प्रदान करें परंतु गिरिराज हिमालय स्नेहपूर्वक बोले- हे भगवान शिव! ब्रह्माजी! श्रीहरि विष्णु, देवराज इंद्र! अपनी प्रिय पुत्री पार्वती के कठिन तप के कारण ही आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि जगत के कर्ता, पालक, संहारक सहित सभी देवता और महान ऋषि-मुनि एक साथ मेरे घर की शोभा बढ़ाने आए हैं। आप सबकी एक साथ सेवा करने का जो शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ है, उसका पूरा आनंद आप मुझे उठाने दीजिए।
हे देवाधिदेव! अपने इस तुच्छ भक्त पर इतनी सी कृपा और कर दीजिए। इस प्रकार पर्वतों के राजा हिमालय ने अनेकानेक तरीके से सब देवताओं सहित शिवजी की बहुत अनुनय-विनय की और इस प्रकार उन्हें हठपूर्वक कुछ दिन और रोक लिया। हिमालय ने सबका बहुत सेवा-सत्कार किया। उन्होंने सभी का विशेष खयाल रखा। सभी की आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा जाता। शैलराज ने देवताओं के लिए हर संभव सुविधा उपलब्ध कराई। इस प्रकार खूब आदर-सत्कार करके सबका मन जीत लिया।
जब बहुत दिन बीत गए तब देवताओं ने शैलराज हिमालय के पास सप्तऋषियों को भेजा ताकि वे देवी मैना और उनके पति पर्वतराज हिमालय को बारात विदा करने के लिए तैयार करें। तब वे सप्तऋषि प्रसन्न हृदय से शैलराज हिमालय के पास पहुंचे और उनके भाग्य की सराहना करने लगे कि आपके अहोभाग्य हैं, जो स्वयं भगवान शिव आपके दामाद बने। पर्वतराज! आपने अपनी पुत्री पार्वती को शास्त्रों एवं वेदों के अनुसार भगवान शिव की पत्नी बनाकर उन्हें सौंप दिया है। कन्यादान तभी पूर्ण माना जाता है, जब कन्या को बारात के साथ विदा कर दिया जाता है। इसलिए आप भी सहर्ष देवी पार्वती को भगवान शिव के साथ सादर विदा कर दीजिए तभी कन्यादान की रस्म पूरी होगी।
तब मैना और उनके पति गिरिराज हिमालय बारात को विदा करने के लिए राजी हो गए। जब भगवान शिव और सभी देवता और ऋषि-मुनि विदा लेकर कैलाश चलने लगे तब देवी मैना जोर-जोर से रोने लगीं और बोलीं- हे कृपानिधा मेरी पुत्री पार्वती का ध्यान रखिएगा। मेरी पुत्री आपकी परम भक्त है। सोते-जागत यह सफ आपके चरणों का ही थ्यान करती है। आप सदा उसके हृदय में विराजमान रहते हैं। आपके गुणगान करते वह नहीं थकती और आपकी निंदा कतई सुन नहीं सकती।
यदि मेरी बच्ची से जाने-अनजाने में कोई अपराध हो जाए तो उसे क्षमा कर दीजिएगा। आप तो भक्तवत्सल हैं, करुणानिधान हैं। मेरी पुत्री पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखिएगा। ऐसा कहकर मैना ने अपनी पुत्री भगवान शिव को सौंप दी। कितने आश्चर्य की बात है कि प्रत्येक माता-पिता इस बात को जानते हैं कि बेटियां धान के पौधे की तरह होती हैं, वे जहां जन्मती हैं, वहां वृद्धि को प्राप्त नहीं होती हैं, फिर भी उसकी विदाई के समय वे दुखी होते हैं, अनजाने ही अपनी आंखों से आंसुओं की झड़ी कैसे लग जाती है। अपनी प्रिय पुत्री पार्वती के वियोग को सोचते ही वे मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़ीं।
तब उनके मुंह पर जल की बूंदें डालकर उन्हें होश में लाया गया। तब सदाशिव ने देवी मैना को अनेकों प्रकार से समझाया ताकि वे अपना दुख भूल जाएं। फिर कुछ समय के लिए मैना और पार्वती को अकेला छोड़कर भगवान शिव सब देवताओं व अपने गणों के साथ हिमालय से आज्ञा लेकर चल दिए। हिमालय नगरी के एक सुंदर बगीचे में बैठकर वे सब प्रसन्नतापूर्वक भगवान शिव की प्राणवल्लभा पत्नी देवी पार्वती के आगमन की बांट संजोए उनकी प्रतीक्षा करने लगे। वे शिवगण प्रसन्नतापूर्वक प्रभु महादेव जी की जय-जयकार कर रहे थे।